SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 686
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार करके-भोजन करता है वह प्रमाद और कपायके वशवी होजानेसे उत्तमक्षमादि दशधर्मरूपं आचरण नहीं कर सकता, न निर्दोष अथवा सम्पूर्ण आवश्यकोंका ही पालन कर सकता है, और न मोहसे अभिभूत हो जानेके कारण ध्यान स्वाध्याय आदिमें ही प्रवृत्त हो सकता है। इसी प्रकार वह आतापन वर्षायोग तथा बाह्य शयन आदि योगोंको भी भले प्रकार पूर्ण नहीं कर सकता। क्योंकि उसका मन शरीरके विषयमें निर्मम होनेके बदले प्रीतियुक्त होजाता है-वह शरीरसुखमें ही आसक्त होने लगता है । अत एव मुमुक्षुओंको धर्मादिकी प्राप्ति केलिय जितेन्द्रियं होकर--रसनेन्द्रियकी लोलुपता छोडकर नित्य परिमित ही भोजन करना चाहिये । परिमित भोजन करनेसे इन्द्रियां दर्पको धारण नहीं करती, किंतु अपने अधीन होजाती हैं, इसी बातको प्रकट करते हैं:-- नाक्षाणि प्रद्विषन्त्यन्नप्रतिक्षयभयान्न च । दोत्स्वैरं चरन्त्याज्ञामेवानूद्यन्ति भृत्यवत् ॥ २४ ॥ परिमित आहार करनेवाले व्यक्तिकी इन्द्रियां मानो इस भयसे कि कहीं उपवासके द्वारा हमारा नाश ही न होजाय, विरुद्ध नहीं हुआ करतीं, और न मदके वेगमें आकर स्वच्छन्द विषयों में विहार ही किया करती हैं। किन्तु एक नौकरके समान आज्ञाके साथ ही निर्दिष्ट कार्य करनेकेलिये उद्यत होजाया करती हैं। परिमित भोजन करनेसे और भी जो विशिष्ट गुण उत्पन्न हुआ करते हैं उनको बताते हैं: , शमयत्युपवासोत्थवातपित्तप्रकोपजाः । रुजो मिताशी रोचिष्णु ब्रह्मवर्चसमश्नुते ॥ २५ ॥ उपवासके द्वारा वात पित्त के कुपित होजा-से जो व्याधियां उत्पन्न हुआ करती हैं वे सब परिमित मोजनके द्वारा शान्त हो जाया करती हैं। क्योंकि वात पित्त दोनो ही उन्मार्गगामी हैं । अत एव अनशनके निमित्तसे धातुओंमें वैषम्य उत्पन्न होता है और परिमित भोजनसे उनमें साम्य आता है। इसके सिवाय इस अवमौदर्यके अध्याय | ६७४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy