SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निमार २८६ | इस उक्त दयाधर्मकी रक्षाकेलिये विषयत्याग करनेका उपदेश देते हैं: सवृत्तकन्दली काम्यासुद्भेदयितुमुद्यतः। यैश्छिद्यते दयाकन्दस्तेऽपोह्या विषयाखवः ॥ १५ ॥ मुमुक्षुओंको वे विषयरूपी मूसे दूर ही से बिडारदेने चाहिये, जो कि उन भव्योंको स्पृहणीय सम्यक्चारित्ररूपी कन्दलीको आविर्भूत करनकोलिये उद्यत हुए दयारूपी कन्दको छिन्न भिन्न करडालते हैं। भावार्थ-मुमुक्षुओंको इसकेलिये सदा सावधान होकर प्रयत्न करना चाहिये कि अभीष्ट चारित्रकी मूल दयाको कहीं ये विषयरूपी मूसे न कुतर जाय । इन्द्रियोंमें जो विवेकको नष्ट करनेकी सामर्थ्य है उसको बताते है:--- स्थार्थरसकेन ठकवद्विकृष्यतेऽक्षेण येन तेनापि । न विचारसंपदः परमनुम्पाजीवितादपि प्रज्ञा ॥ १६ ॥ स्वार्थलम्पट ठगोंके समान, अपने विषयोंमें लोलुपता रखनेवाली जो इन्द्रियां प्रज्ञा--यथावत अर्थक ग्रहण करनेकी शक्तिको धारण करनेवाली विशिष्ट बुद्धिको उसकी विचार संपत्तिसे दूर करदेती हैं । वे अपने निमित्तके वश बल पाकर, इतना ही नहीं--उस प्रज्ञाकी विवेकश्रीका अपहरण ही नहीं करती किंतु अनुकम्पा -दयासे भी उसको रहित करदेती हैं। जो कि उसका जीवन है। बध्याय ... भावार्थ--जिस प्रकार कोई ठग अपना काम- स्वार्थ सिद्ध करनकोलिये किसी अतिविदग्ध भी स्त्रीकी संपत्ति भूषणादिका अपहरण करलेता और अंतमें उसको जीवनरहित बना देता है। उसी प्रकार विषयलो
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy