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________________ बनगार २८५ बध्याय 8 भावार्थ - जिसका अपकार किया जाता है उसके मनमें बहुधा ऐसा कषायका संस्कार जम जाता है जो कि अनंत भव भी नहीं छूटता । और जब मौका पाता है तभी उस कषायके वश होकर वह जीव उससे बदला लेना चाहता है । पार्श्वनाथ भगवान् तेईसवें तीर्थंकर के जीवने मरुभूतिके भवमें अपने बड़े भाई कमठका अपकार भी नहीं किया था । फिर भी अपकार समझ कर उसके मनमें जो कषायवासना जमगई और उसके अनुसार समय समयपर जो उसने अपराध किये सो सब पुराणों में स्पष्ट हैं । अत एव किसी भी जीवका कभी भी एक बार भी अपकार नहीं करना चाहिये । जो व्यक्ति सदा दयाकी भावना - अनुस्मरण करनेवाली है उसको परम प्रमोदरूप फल प्राप्त होता है। ऐसा उपदेश देते हैं: तत्त्वज्ञानच्छिन्नरम्येतरार्थप्रीति द्वेषः प्राणिरक्षामृगाक्षीम् । आलिङ्गयालं भावयन्निस्तरङ्गस्वान्तः सान्द्रानन्दमङ्गत्यसङ्गः ॥ १४ ॥ मनोज्ञ और अमनोज्ञ पदार्थों में क्रमसे होनेवाले राग और द्वेषको जो तत्त्वज्ञानके द्वारा नष्ट करके और मनको निर्विकल्प बनाकर प्राणिरक्षा - दयारूपी गुणोंका पुनः पुनः स्मरण करता हुआ आलिङ्गन करता है वह अत्यंत निविड आनंदको प्राप्त होता है। व्यक्ति - परिग्रहरहित यति मृगाक्षी - मृगनयनीका उसके भावार्थ -- दयाके द्वारा आनन्द फल प्राप्त करनेवालेको असङ्ग शब्दसे जो कहा है उसका अभिप्राय अचेतन परिग्रहोंमेंसे जितनेका त्याग किया जासके उतनेका त्यागी किंतु जिनका वह त्याग न कर सके उके विषय में ममत्वका त्याग करनेवाला है । इसी प्रकार दयाको मृगनयनी - कामिनी कहनेका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कामिनीका प्रत्येक अंग आनन्दोत्पादक होता है उसी प्रकार दयाका भी प्रत्येक अंश सुखा. वह होता है। २८५
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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