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________________ जिनवन्दना या सिद्धवन्दना आदि करते समय जो प्रणाम जिस स्थानपर करना उचित है मुमुक्षुओंको वही प्रणाम उस स्थानपर करना चाहिये । । क्रिया प्रयोग विधिको बताते हैं: कालुष्यं येन जातं तं क्षमयित्वैव सर्वतः । सङ्गाच्च विन्तां व्यावर्त्य क्रिया कार्या फलार्थिना ॥१६॥ कर्मोंकी निर्जरा-मोक्ष अथवा तीर्थकरत्वादि महान् अभ्युदयोंकी इच्छा रखनेवाले साधुओंको सम्पूर्ण परियडोंकी तरफसे चिंताको हटा कर और जिसके साथ किसी तरहका कभी कोई कालुष्य उत्पन्न होगया हो उससे क्षमा कराकर ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिये । कहा भी है कि: येन केनापि संपन्नं कालुष्यं दैवयोगतः क्षमयित्वैव तं त्रेधा कर्तव्यावश्यकक्रिया । अर्थात्-दैवयोगसे क्रोधादिके आवेश वश यदि किसीके साथ कोई कालुष्य पैदा होगया हो तो उससे मनवचन और कायके द्वारा क्षमा करा कर ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिये । इसके पहले इसी अध्यायके ५८ वें पद्यमें जो कृतिकर्मका अमल विशेषण दिया है उसका अर्थ स्पष्ट करते हैं: दोषैभत्रिंशता स्वस्य यद्व्युत्सर्गस्य चोज्झितम् । त्रियोगशुई क्रमवन्निभलं चितिकर्म तत् ॥ ९७ ।। जिस क्रियाके करनेसे तीर्थकरत्वादि महान पुण्यका अर्जन हो सकता है उस जिनेन्द्रादिकी वन्दनाको चितिकर्म कहते हैं । चितिकर्म वही निर्मल समझना चाहिये जिसका कि क्रम प्रशस्त हो और जहाँपर मन वचन अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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