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________________ त्रिगुप्त आत्माके एक परमाणुमात्र भी नवीन कर्मयोग-पुद्गलद्रव्यका आस्रव नहीं होता। और बिना किसी प्रकारका प्रयत्न किये ही पूर्वसश्चित कर्म अपना फल न देकर ही आत्मासे सम्बन्ध छोडजाते हैं। .अनगार १८७ भावार्थ- उपर्युक्त तीनों प्रकारकी योगपरिणति जिसकी सर्वथा नष्ट हो चुकी है उसीको वस्तुतः त्रिगुप्तिका धारक समझना चाहिये और उसीके परमसंवर तथा परमनिर्जरा हो सकती है या हुआ करती है ।। सिद्ध हुए योग-ध्यानके आश्चर्यजनक माहात्म्यको प्रकट करते हैं: - अहो योगस्य माहात्म्यं यस्मिन् सिद्धेऽस्ततत्पथः । पापान्मुकः पुमाल्लब्धस्वात्मा नित्यं प्रमोदते ॥ १५८॥ जिस योग-ध्यानके सिद्ध होजानेपर जीव पापकर्मों के आने के मार्गका सर्वथा निरोध कर पूर्वसञ्चित पापकर्मोंसे भी सर्वथा रहित हो निज शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर अनन्त कालतक निरन्तर आत्मिक परमानन्दपदका अनुभव करता है, अहो उसके आश्चर्यकारी माहात्म्यका कौन वर्णन कर सकता है। भावार्थ- परमसंवर सम्पूर्ण निर्जरा और परममुक्ति इन तीन लोकोत्तर तत्त्वोंकी प्राप्ति ध्यानके निमित्तसे ही हो सकती है। अत एव उसका माहात्म्य भी लोकोत्तर ही समझना चाहिये । यहाँपर पापशब्दसे सभी कोका ग्रहण किया है । क्योंकि निश्चय नयसे देखा जाय तो सभी कर्म आत्माके प्रतिपक्षी हैं और संसाररूप अथवा उसके कारण हैं। तथा संसारका अभाव हो जानेपर जो जीवको निज शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्ति होती है उसको मोक्ष कहते हैं । इसके कारण परमसंवर और निर्जरा हैं जिनकी कि सिद्धि उक्त ध्यानके द्वारा ही हो सकती है। यह ध्यान अप्रमत्त संयत गुणस्थानके प्रथम समयसे लेकर अयोगकेवलि गुणस्थानके प्रथम समय को प्राप्त कर क्रमसे व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानरूप हो जाता है। यहींपर इसकी निष्पन्नता होती है और लोकोत्तर माहात्म्य प्रकट होता है। अध्याय |
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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