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अनगार
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जीववपुषोरभेदो येषामैकान्तिको मतः शास्त्रं ।
कायविनाशे तेषां जीवविनाशः कथं वार्यः ।। जिनके शास्त्रमें आत्मा और शरीरमें एकान्तसे अभेद माना गया है वे लोग शरीरका नाश होनेसे आ. त्माका भी नाश हो जायगा, इस आपत्तिका वारण किस तरह कर सकते हैं ?
अत एव शरीरसे आत्मा कथंचित् भिन्न और कथंचित अभिन्न है। ऐसा माननेसे ही अहिंसारूप परम धर्मकी सिद्धि हो सकती है। उक्त अज्ञानके कारण भेदैकान्त और अभेदैकान्तके समान लोगोंमें नित्यत्वैकान्त और अनित्यत्वैकान्त भी है । किंतु उससे भी दयाधर्मकी सिद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि आत्मा यदि नित्य है तो उसका वध ही नहीं हो सकता । और यदि अनित्य है तो सर्वथा विनाश हो जायगा । फिर परलोकके विना दयाधर्मका अनुष्ठान ही किस तरह बन सकता है ? जैसा कि कहा भी है:
जीवस्य हिंसा न भवेन्नित्यस्य परिणामिनः । क्षणिकस्य स्वयं नाशात्कथं हिंसोपपद्यताम् ।।
. जीव यदि नित्य है तो अपरिणामी भी अवश्य है । उसका नाश नहीं हो सकता। और यदि क्षणिक है तो स्वयं जीवका ही सर्वथा नाश हो जायगा। फिर हिंसा किस तरह सिद्ध हो सकती है ? नहीं हो सकती । अत एव प्रमाणसिद्ध जीवको कथंचित् द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नित्य और कथंचित-पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा अनित्य मानना चाहिये। तभी अहिंसाधर्म सिद्ध हो सकता है क्योंक नित्यानित्यात्मक जीवमें ही हिंसा संभव हो सकती है। और उसके होनेपर ही उसके त्यागरूप दयाधर्मका पालन बन सकता है।
जिन जीवोंका मोहोदयजनित अबान नष्ट हो गया है उनके उपर्युक्त एकान्त प्रत्यय नहीं हो सकता। वे आत्माके अनेकान्त स्वरूपका ही निश्यय करते हैं। और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही व्रतोंका आचरण हो इसलिये
अध्याय