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________________ अनगार कारुण्यात्प्रतिपादयन्ति सुधियो धर्म सदा शर्मदम् । संदिग्धं पुनरन्तमेत्य विनयात्पृच्छन्तमिच्छावशा-, न्न व्युत्पन्नविपर्ययाकुलमती व्युत्पत्त्यनार्थत्वतः॥ १७॥ जो श्रोता अव्युत्पन्न है-धर्मके स्वरूपका जानकार नहीं है उसके अभिप्रायके स्वरूपको समझकर धर्मोपदेष्टा आचार्य कृपा करके उसके अभिशयके अनुसार धर्मसे मिलनेवाले लाभ पूजा आदि फलोंको दिखाकर धर्मके विषयमें उसका लोभ-रुचि उत्पन्न कराकर भी सुख व कल्याणके देनेवाले धर्मका उपदेश दिया करते हैं। इसी प्रकार जो संदिग्ध है-जो यह निश्चय नहीं कर सका है कि धर्मका स्वरूप यही है अथवा अन्य; वह यदि उसको जाननेकी इच्छासे विनयके साथ-उद्धतताको छोडकर पासमें आकर पूछता है कि धर्मका स्वरूप इसी तरह है या अन्य प्रकारका; तो उसको उस धर्मका उपदेश विशेष रूपसे देते हैं । किंतु जो व्यक्ति धर्मके विषयमें व्युत्पन्न है अथवा विपरीत ज्ञानके कारण दुष्ट बुद्धि रखनेवाला है-ऐसी दुष्ट बुद्धि कि जिसके कारण समीचीन धर्मके अनुसार कहे हुए पदार्थोंसे विपरीत ही समर्थन करनेका दुराग्रह करने लगता है-उसको धर्मका उपदेश नहीं देते । क्योंकि जो व्युत्पन्न है वह तो स्वयं जानकार है इसलिये उपदेशका पात्र नहीं । और जो विपरीत -दुष्ट बुद्धि रखनेवाला है वह धर्मकी व्युत्पत्तिको चाहता ही नहीं-उससे मत्सर करनेवाला है। इसलिये उसका पात्र नहीं। व्याय भावार्थ-चार प्रकारके श्रोताओं से अव्युत्पन्न और संदिग्ध दो ही उपदेशके पात्र हैं। व्युत्पन्न और विपर्यस्त नहीं। यहांपर यह प्रश्न हो सकता है कि जिसकी बुद्धि दृष्ट फलकी अमिलाषासे दूषित हो रही है-संसारके विषय- भोगोंसे जिसकी रुचि घटी नहीं है और इसीलिये जो लाभ पूजा अभ्युदय आदिको प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखता है-उसको धर्मका उपदेश किस तरह दिया जा सकता है ? दृष्टांतद्वारा इस शंकाका निराकरण करते हैं । - PRADESHICHAENIRCUPENDRAPATTISHTRIA203999398 ४३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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