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________________ बनणार २०६ देव मनुष्य भवकी प्राप्ति, तथा जहांसे फिर जन्म ग्रहण नहीं करना पडता ऐसे मोक्षपदकी सिद्धि हो ही जाती है। फिर भी तू जो इस पुण्य कर्मका बंध करके इन संसारके विषयोंमें बुद्धि लगाता है-- इस " पुण्यसे मुझको अमुक अभ्युदय या अतिशय प्राप्त हो" ऐसी कल्पना करता फिरता है सो व्यर्थ है। आकाङ्क्षाका निरोध करनेकेलिये अत्यंत प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं:-- पुण्योदयैकनियतोभ्युदयोत्र जन्तोः, प्रेत्याप्यतश्च सुखमप्यभिमानमात्रम् । तन्नात्र पौरुषतृषे पावागुपेक्षा, पक्षो ह्यनन्तमतिवन्मतिमानुपेयात् ॥ ७८ ॥ मनुष्योंका इस लोकमें या परलोकमें सर्वत्र अभ्युदयोंका प्राप्त होना एक पुण्यकर्मके उदयके ही अधीन है। क्योंकि यदि पुण्यकर्मका उदय न हो तो चाहे जितना भी पुरुषाथ किया जाय, उससे अभ्युदयोंकी सिद्धि नहीं हो सकती। और पुण्यका उदय होनेपर वह पुरुषार्थ सफल हो सकता है और अभ्युदयोंकी भी प्राप्ति हो सकती है । अत एव जीवोंके इस लोक और परलोकके अभ्युदय पुण्योदयके ही अधीन हैं। अर्थात् संसारी जीवोंके सभी अभ्युदय पराधीन हैं। एवं इन अभ्युदयोंसे जो सुख प्राप्त होता है वह भी आभमानमात्र ही है—मैं सुखी हूं इस तरहकी एक अनुरक्त कल्पनामात्र ही है । अत एव विचारशील पुरुषोंको चाहिये कि वे अभ्युदय और तजनित सुखके विषयमें क्रमसे पौरुष और तृष्णाको छोड दें । अनन्तमति नामकी सेठकी पुत्रीके समान परवचन - सर्वथा एकान्तवादियोंके अभिमतमें उपेक्षायुक्त-रागद्वेषहित पक्ष रखकर सांसारिक अभ्युदय के सिद्ध करनेमें परिश्रम और तज्जनित सुखकोलिये आकाङ्क्षा न करना चाहिये। विचिकित्सा नामके अतीचारका स्वरूप बताते हैं: अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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