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अनगार
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होनेवाले शुभ परिणाम जो कि उस द्रव्यपुण्यका निमित्त हैं उन्हें आस्रवक्षणके अनंतर भावपुण्य कहते हैं। इसी तरह द्रव्यपाप और भावपापका भी स्वरूप समझना चाहिये । अंतर इतना ही है कि इसमें जीवके अशुभ परिणाम ग्रहण करने चाहिये, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है।
पुण्यकर्मके सामान्यसे चार भेद हैं-साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र । किंतु उत्तर भेद ब्यालीस हैं । यथा- साता वेदनीय १ तिर्यगायु २ मनुष्यायु ३ देव आयु ४ मनुष्य गति ५ देवगति ६ पंचेन्द्रियजाति ७ औदारिक शरीर ८ वैक्रियिक शरीर ९ आहारक शरीर १० तैजसशरीर ११ कार्माणशरीर १२ औदारिक आङ्गोपाङ्ग १३ वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग १४ आहारक आङ्गोपाङ्ग १५ समचतुरस्र संस्थान १६ वज्रर्षभ नाराच संहनन १७ प्रशस्त वर्ण १८ प्रशस्तगंध १९ प्रशस्त रस २० प्रशस्त स्पर्श २१ मनुष्यगत्यानुपूर्व्य २२ देवगत्यानुपूर्व्य २३ अगुरुलघु २४ परघात २५ उच्छास २६ आत. प २७ उद्योत २८ प्रशस्त विहायोगति २९ त्रस ३० बादर ३१ पर्याप्त ३२ प्रत्येकशरीर ३३ स्थिर ३४ शुभ ३५ सुभग ३६ सुस्वर ३७ आदेय ३८ यश-कीर्ति ३९ निर्माण ४० तीर्थकर ४१ उच्चगोत्र ४२।।
इसी तरह जिस कर्मरूप बंधके प्रधान हेतु जीवके अशुभ परिणाम हैं उसको ही पाप कहते हैं। इसके आठ भेद हैं जिनके नाम ऊपर लिखे जा चुके हैं। किंतु उत्तर भेद व्यासी हैं, यथा-ज्ञानावरणकी पांच (मतिज्ञानावरण आदि), दर्शनावरणकी नव (चक्षुर्दर्शनावरण आदि ), असाता वेदनीय एक, मोहनीयकी छब्बीस ( एक मिथ्यात्व और २५ कषाय ), आयु एक (नारक), नामकर्मकी ३४ ( उपर्युक्त पुण्य प्रकृतियोंके सिवाय नरक गति आदि), गोत्र एक [ नीच], अन्तरायकी पांच [दानान्तराय आदि ।
इस प्रकार बंधतत्वके स्वरूप और भेद बताये गये। अब उसके बाद संवरतत्त्व क्रमप्राप्त है। अत एव उसका स्वरूप और भेद बताते हैं:
____स संवरः संत्रियते निरुध्यते कर्मास्रवो येन सुदर्शनादिना ।
अध्याय