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________________ भावार्थ-जीव जैसा विचार करता है वैसा ही उसको फल भी मिलता है। क्योंकि परिणामोंके अनुरूप ही कर्मोंका संचय और उनका फल हुआ करता है। जैसा कि कहा भी है कि: अनगार २७ अविद्वान् पुदलद्रव्यं योमिनन्दति तस्य तत् । 'न जातु जन्तोः सामीप्यं चतुर्गतिषु मुश्चति ॥ जो अविवेकी पुद्गलद्रव्यकी प्रशंसा करता है और उसको प्राप्त करना चाहता है उस प्राणीका वह चारो गतियोंमें कदाचित् भी साथ नहीं छोडता। क्योंकि जीव जिन पुद्गलोंको आत्मा या आत्मीय समझकर उनमें अभिनिवेश किया करता है वे ही उसके दीर्घ संसारके कारण हुआ करते हैं। जैसा कि कहा भी है कि: चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मानः कुयोनिषु । अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जापति ॥ जिनके हृदयमें आत्मासे असम्बद्ध पदार्थोंमें ममकार और आत्मसम्बद्ध पदार्थोंमें अहंकाररूपी निदिड अंधकार जाग्रत होजाता है या रहता है वे मूढात्मा कुयोनियों में चिरकालके लिये अच्छी तरह सोजाते हैं-निमय होजाते हैं। इसी प्रकार पूर्वमवमें शरीरमें आत्मत्वका अध्यवसाय करके जीवने जिस पुद्गलविपाकी नामकर्मका उपार्जन किया था उसीके उदयसे वर्तमानमें जो शरीर प्राप्त हुआ उसीके द्वारा स्त्रीपुत्रादिक कुटुम्बी जन तथा गृहादिरूपी बाह्य परिग्रहोंने उस बहिर्बुद्धि प्राणीको अति दृढरूपसे किसी अलौकिक बंधनद्वारा बांधलिया है। क्योंकि शरीरके द्वारा अथवा उसके निमित्तसे ही समस्त बन्ध और तज्जनित दुःख हुआ करते हैं । यह आश्चर्यकी बात है कि आत्मासे अत्यंत भिन्न रहनेपर भी इन परिग्रहोंने भीतरसे आत्माको बांधलिया है । जिसने जीवको अपने साथ गाढरूपसे नियंत्रित कर रक्खा है वह बंधन भी ऐसा अलौकिक है कि जिसको काटने की इच्छा रखते हुए भी वह प्राणी उल्टा उसको दृढ बना देता है । जिस प्रकार लोकमें रस्सी आदिक बंधन पानीके निमित्तसे अधिक अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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