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________________ अनगार ७४५ ध्यान में रखने योग्य है वह यह कि यहाँपर सामायिक विषयमें यद्यपि छह निक्षेप और उनके मेदोंको घटित किया है फिर भी वास्तवमें प्रयोजन आगमभाव सामायिक और नो आगमभाव सामायिकसे ही है। दसरी तरहसे निरुक्ति करके भावसामायिकका फिरसे लक्षण बताते हैं: समयो दृग्ज्ञानतपोयमनियमादौ प्रशस्तसमगमनम् । स्यात्समय एवं सामायिकं पुनः स्वार्थिकेन ठणा ॥२०॥ समय शब्दमें सम्का अर्थ प्रशस्तवा अथवा एकत्व होता है, और अयका अर्थ प्राप्ति या परिणति होता । अतएव परीषद कषाय और इन्द्रियों को जीतकर तथा संज्ञाओं दुर्लेश्याओं और दुनिोंको छोडकर दर्शन ज्ञान तप यम नियम आदिके विषयमें प्रशस्तताकी प्राप्ति अथवा एकत्व रूपसे परिणमन होनेको समय करते और समयकाही नाम सामायिकहे। क्योंकि समय शब्दसेही स्वार्थमें ठण् प्रत्ययः होकर सामायिक शब्द बनता है। अपंह श्लोकों में सामायिक करनेकी विधि बताते हैं। उसमें सबसे पहले नाम सामायिककी भावनाका स्वरूप निरूपण करते हैं: शुभेऽशुभे वा केनापि प्रयुक्ते नाम्नि मोहतः। खमवाग्लक्षणं पश्यन्न रतिं, यामि नारतिम् ॥ २१॥ किसी भी शुभ या अशुभ नाममें अथवा यदि कोई मेरे विषय में ऐसे शब्दोंका प्रयोग करे तो उनमें मझे रतिया अरति न करनी चाहिये । क्योंकि वह शुभाशुम शब्द बोलनेवाला मोही-अज्ञानी है। वह नहीं जानता कि मैं शब्दका विषय नहीं हूं। किंतु मैं देखरहाहूं कि वास्ववमें मैं अवाग्लक्षण हूं। मैं शब्दके द्वारा नहीं जाना जा सकता, और न शब्द मेरा स्वरूप या लक्षण ही है। जैसा कि कहा भी है कि: अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसरं । जाणमलिंगरगहणं जीवमपिदिसंठाणं॥ अध्याय 1994
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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