SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनगार धर्मः ४५५ भी विष्णु दान करनेवालोंमें प्रधान बननेमें यदि अलम रहें अथवा दानव--असुरोंका विनिपात करनेमें कुण्ठित रहें तो अवश्य ही वे सद्विधिसे भी नितान्त भ्रष्ट ही समझे जायगे, या रहेंगे । इसी प्रकार कठिन परिश्रम और पुण्यके द्वारा प्राप्त हुई लक्ष्मीका मैं स्वयं भोग करता हुआ भी यदि उसको दानमें खर्च न कर सका और उसके द्वारा सत्पुरुषोंपर आनेवाले संकटों का निराकरण न करसका और उनका उपकार न करसका तो मैं और उत्कृष्ट आचरणका पालन करनेसे तो अवश्य ही बश्चित रहूंगा, जब साधारण गृहस्थोचित धर्मका ही मै सेवन नहीं कर सकता तो सर्वोत्कृष्ट मोक्षमार्ग मुनिधर्मका तो धारण ही किस तरह कर सकूँगा । ऐसा सोचकर जो सद्गृहस्थ अपनी उस लक्ष्मीका भोग करता हुआ भी साधुओंका उपकार करनेमें व्यय करता है और उसके निमित्तसे प्रतिक्षण उद्दीप्त होते हुए मोक्षमार्गोपयोगी बल और वीर्यके द्वारा उत्कृष्ट मोक्षमागेमें गमन करने लगता है वही धन्य है। गृहस्थाश्रमको छोडकर यदि तपका आराधन किया जाय तभी मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति निर्विघ्नतया हो | सकती है, अन्यथा नहीं । इसी बातको प्रकट करते हैं: प्रजाग्रद्वैराग्यः समयबलवलगत्स्वसमयः, सहिष्णुः सर्वोमीनपि सदसदर्थस्पृशि दृशि । गृहं पापप्रायक्रियमिति तदुत्सृज्य मुदित, स्तपस्यन्निःशल्यः शिवपथमजस्रं विहरति ॥ १३९ ॥ जिमका वैराग्य-संसार शरीर और भोगों इन्द्रियविषयोंमें तृण्णाराहित्य-रागद्वेषरहित परमप्रशमरूप परिणाम प्रतिक्षण प्रकर्षरूपसे प्रदीप्त होता चला जाता है, लाभादिककी अपेक्षासे रहित होनेके कारण जिसके वैतृष्ण्यकी स्फूर्ति उत्तरोत्तर बढती ही जाती है। और जिम के अंतरङ्गमें काललब्धि तथा श्रुतज्ञानके सामNसे निज चित्स्वरूपकी प्राप्ति उछल रही है। आगे बढ़ने के लिये सगर्व गर्जना कर रही है। एवं जो स बध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy