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________________ मस्त परीपहोंको साधुरूपसे जीतनेके लिये प्रवृत्त है, ऐसा मुमुक्षु अन्तर्दृष्टिको प्रशस्त और अप्रशस्त पदार्थोके भी स्पर्श करनेवाली होनेपर उस गृहको जिसमें कि अधिकतया ऐसे ही कर्म-क्रियाएं हुआ करती हैं या करनी पडती हैं जिनमें कि प्रायः पापका ही आरम्भ हुआ करता है। प्रसन्नताके साथ माया मिथ्या तथा निदान इन तीन शल्योंसे रहित होकर अन्तरङ्ग एवं बाह्य दोनो ही प्रकारके तपका आराधन करता है वही तपस्वी रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गमें अविश्रांत रूपसे विहार कर सकता है। बनगार धर्म पाहा. भावार्थ-संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होजानेपर भी और काललब्धिको प्राप्त कर पूर्वोक्त रीतिसे श्रुतज्ञानके द्वारा निजात्मस्वरूपकी उपलब्धिका अभ्यास करलेनेपर तथा अन्तरङ्गमें विवेक या भेदज्ञानरूप समीचीन दृष्टिके स्फुरायमान भी होनेपर जबतक अनेक पापारम्भसे युक्त घरका परित्याग न किया जाय तबतक निःशल्य होकर तपका आराधन नहीं किया जा सकता। गृहनिरत पुरुषके कोई न कोई शल्य लगी ही रह सकती है। जैसा कि गुणभद्र स्वामीने भी कहा है कि "गृहाश्रमे नात्महितं प्रसिध्यति" गृहस्थाश्रममें आत्माका हित-मोक्ष अच्छी तरह सिद्ध नहीं हो सकता। अतएव जो मुमुक्षु अविश्रांत रूपसे मोक्षमार्गमें विहार करना चाहते हैं-पूर्णरूपसे रत्नत्रयका आराधन करना चाहते हैं उन्हे चाहिये कि वे उक्त गुणोंसे युक्त होकर भी पापप्राय क्रियाओंसे युक्त गृहका सर्वथा और अवश्य ही परित्याग करें । बाह्य परिग्रहों में शरीर सबसे अधिक हेय है ऐसा उपदेश देते हैं: - शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षितव्यं प्रयत्नतः । इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति तण्डुलः ॥ १४ ॥ धर्मसंयुक्त-जिससे धर्मका साधन हो सकता है अथवा जो धर्मका आराधन करनेवाले जीवसे युक्त । है उस शरीरकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये, इस शिक्षाको आप्त भगवान्के उपदिष्ट प्रवचनका तुष्-छिल बध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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