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________________ अनगार . प्राप्तो हसत्सहेलकवर्गममर्षन् कुमारः स्यात् ॥ ६८ ॥ बाल्य और यौवनके मध्यवर्ती वयमें रहनेवाला यह जीव कभी तो अपने शरीरको गली कूचा या सडककी धूलिसे धूसरित बनाकर भागता फिरता है। कभी गड्ढों पाषाणों व तीक्ष्ण कण्टकों तथा अनेक प्रकारके ककरीले स्थानोंकी पीडाको प्राप्त करता है। एवं कभी साथके खेलनेवाले लडकोंसे जब कि वे इसकी हसी करते हैं, ईर्ष्या करने लगता है। र यौवनकी निन्दा करते हैं:पित्रोः प्राप्य मृषामनारथशतैस्तारुण्यमुन्मार्गगो, दुर्वारव्यसनाप्तिशङ्किमनसोर्दुःखार्चिषः स्फारयन् । ताकिंचित्प्रखरस्मरः प्रकुरुते येनोद्धधाम्नः पितॄन्, क्लिश्नन् भूरिविडम्बनाकलुषितो धिग्दुर्गती मज्जति ॥ ६९ ॥ माता पिताके ही व्यर्थके सैकडों मनोरंथोंसे यौवन अवस्थाको प्राप्त कर यह मनुष्य उन्मार्गगामी होजाता है-त्रिवर्ग के विरुद्ध आचरण करने लगता है और तीव्र कामदेवके वेगसे संतप्त होकर कुछ ऐसे निन्द्य कर्म करने लगता है कि अध्याय '१ इस श्लोकका दूसरा अभिप्राय ऐसा भी हो सकता है कि जब इसको साथके खेलनेवाले चिडाते हैं तब उनसे ईर्ष्या करता और कष्टकर गड्ढे आदि स्थानोंको प्राप्त कर गलियोंकी धूलिसे धूसरित हो भागता फिरता है । .२ अब इसका यह होगा और उससे फिर ऐसा होगा, अथवा इससे मेरा अमुक २ कार्य सिद्ध होगा इत्यादि अनेक प्रकारसे, प्राप्त न हो सकनेवाले पदार्थोकी प्राप्तिकेलिये जो मनमें संकल्प हुआ करते हैं उन्हीको मनोरथ कहते हैं । -
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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