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________________ बनगार ८७२ बज्याय उन पुरुषों को संसारसमुद्रमें डुबा हुआ समझना चाहिये जो कि कर्म करने - बाह्य आचरण के पालन करनेकाही एकान्त पक्ष पकडकर बैठे हैं; क्योंकि वे ज्ञानके अनुभव से शून्य हैं। इसी प्रकार वे मनुष्य भी संसारमें निमन ही समझने चाहिये जो कि ज्ञानको ही एकान्ततः आत्मोद्धारका उपाय मानते हैं। क्योंकि वे आचरण करनेमें अत्यंत स्वच्छन्द और मंदोद्यमी होजाते हैं। अतएव वे ही साधुजन संसारसमुद्रको तरकर विश्व के ऊपर विराजमान हो सकते हैं, जो कि स्वयं ज्ञानका सेवन - आत्मध्यानका अभ्यास करते हुए बाह्य चारित्रका भी पालन करते हैं और कभी भी प्रमादके वशीभूत नहीं हुआ करते । समाधि – ध्यानकी उत्कृष्ट अवस्थाका माहात्म्य इतना अधिक है कि उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता, इसी बातको प्रकट करते हैं। यः सूते मरमानन्दं भूर्भुवः स्वर्भुजामपि । काम्यं समाधिः कस्तस्य क्षमो माहात्म्यवर्णने ॥ ३० ॥ अन्यकी तो बात ही क्या, अधोलोक के स्वामी धरणीन्द्रादिक और मध्य लोकके अधिपति चक्रवर्ती आदि तथा ऊर्ध्वलोकके पालन करनेवाले सौंधर्मेंद्राहिकों को भी जो समाधि अभिलषित उत्कृष्ट प्रहृनता रूप आनन्दसुखको दिया करती है, उस समाधिके माहात्म्यका वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है । भावार्थ-समाधि द्वारा कमको नष्ट कर जीव अविचल पद - मोक्षको प्राप्त किया करता है। किंतु जब तक वह प्राप्त नहीं होती तब तक उस समाधिके बलसे जीव संसारके भी सर्वोत्कृष्ट अभ्युदयोंको प्राप्त किया करता है, अत एव उसकी महिमा अपार है. उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता। जैसाकि कहा भी है कि: अनाधिव्याधिसंबाधममन्दानन्दकारणम् । न किंचिदन्यदस्तीह समाधेः सदृशं सखे ॥ 妣酸笋G磔想翻∽∽∽∽∽ ADIDAS ADILET ર
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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