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अनगार
। धर्म
अनादि संतानक्रमसे चले आये-जबसे संसार है तभीसे मेरे साथ सदा सन्निहित रहनेवाले -अव्युच्छिन्न प्रवाहरूपसे मेरी आत्माके साथ लगे हुए ज्ञानावरणादि कर्मके योग्य पुदलद्रव्य इस ताह श्लिष्ट हो गये मानो मैं और वे एक ही है। और इन्हीके निमित्तमे मैं मोह या रागद्वेषरूप औपाधिक-वैमाविक भावोंसे भी परिणत होने लगा। इस प्रकार पर-पुद्गलद्रव्य से कथंचित् तादात्म्यको प्राप्त हुआ औरविभावरूप परिणत हुआ मैं अब यदि तचतः आत्मस्वरूपका श्रद्धान कर और ज्ञान प्राप्त कर उपाधिरहित साम्यावस्थाको धारण कालूं । निजात्माके शुद्ध चित्स्वरूपको भले प्रकार जानकर और वैसा ही उसका श्रद्धान भी करके रागद्वेष परिणतिकी निश्छल उपरतिको प्राप्त हो जाऊं। और शुद् निजात्मस्वरूपकी तरफ इस प्रकार उन्मुख हुए - मुझ आरब्धयोगीका गम्भीर आनन्दामृत के समुद्र में विना किसी परिश्रमके - लीलामात्रमे ही यदि अवगाहन होने लगे तो मोहादिको आविष्ट चित्पर्यायोंके न रहने पर यह फलके द्वारा अनुभवमें आनेवाली पापरूपी अग्नेि किसको दग्ध करेगी? किसीको भी नहीं। क्योंकि ये पापकर्म फलके द्वारा ही अपना परिचय कराया करते हैं । रागद्वेष या मोहसे आक्रान्त तथा विभावभावरूप परिणत आत्माओंको ही सताया करते हैं। किंतु जब मैं आरब्धयोगी होकर क्रमस योगकी परा काष्ठाको प्राप्त हो स्वाभाविक चिदानन्दका अच्छी तरह अनुभव करने लगूगा उस समय मेरे ये समस्त वैभाविक भाव नष्ट हो जायगे। फिर वह पापानि किसको संतप्त कर सकेगी? किसीको भी नहीं। जब तृण या काष्ठ ही न रहेगा तब अग्नि किस चीजको जलावेगी? किसी को भी नहीं । वह स्वयं शान्त होजायगी।
भावार्थ-मुझको आत्माके विषयमें वास्तविक सम्पदर्शन व ज्ञान प्राप्त कर तथा उनके शुद्ध स्वरूपको पाकर उसी में लीन होना चाहिये जिससे कि स्वाभाविक अनन्त सुख प्राप्त हो और संसारताप नष्ट हो ।
समाधिमें आरोहण करनेकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओंको अन्तरात्माकी तरफ ही उपयुक्त रहने का उपदेश देते हैं: -
मुझको आम जिससे कि स्वानवाले मुमुक्षु
अध्याय
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अन. ध. ५९