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________________ अनगार १६६ अयमधिमदबाघो भात्यहंप्रत्ययो य,स्तमनु निरवबन्धं बद्धनिर्व्याजसख्यम् । पथि चरासे मनश्चेत्तर्हि तडाम ही, भवदवविपदो दिङमृढमभ्येषि नो चेत् ॥ १४॥ अहंप्रत्ययके द्वाग जिसका भीतर--आत्मामें प्रतिभास होता है वह आत्मा सर्वथा निर्बाध है । अनुभविताओंको 'मैं' इस शब्दके द्वारा जिसका ज्ञान होता है वही आत्मा है ऐसा यद्यपि स्वयं प्रतीत होता है फिर भी उसकी अबाधता युक्ति और आगम दोनो प्रमाणोंसे भी सिद्ध है। क्योंकि जिस पदार्थका मैं इस शब्दके द्वा रा अपने भीतर ही भान होता है वह आत्मा नहीं है इस बातको अथवा उससे भिन्न दूसरा पदार्थ है इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है । तथा आगममें भी कहा है कि " यत्र अहमित्यनुपरितप्रत्ययः स आस्मा"। मैं इस शब्दके द्वारा जिसका अनुपरित ज्ञान होता है वही आत्मा है । हे मन ! इस प्रकार युक्ति और आगमके द्वारा अबाध सिद्ध आत्माके साथ निश्छल मित्रता जोडकर यदि तू अस्खलित रूपसे श्रेयोमार्गमें प्रवृत्त हो तो अवश्य ही तुझको वह प्रसिद्ध स्थान प्राप्त हो जो कि अनिर्वचनीय तथा केवल अनुभवद्वारा ही गम्य है । अन्यथा-- यदि तू अन्तरात्माके साथ उपयुक्त होकर मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति न करेगा तो दिङ्मूढ--सद्गुरुओंके उपदेशमें व्यामोहित होकर संसाररूपी दावानलकी विपत्तियोंके ही अभिमुख प्राप्त होगा। भावार्थ-जैसे कि दावानल जिसमें जल रहा है ऐसे वनमें दिशाभूल होजानेपर मनुष्य समीचीन मार्ग में न जाकर उल्टा उस मार्गकी तरफ जाने लगे जिसमें कि दावानल जस रहा है तो अवश्य ही उसको उस दावाग्निकी विपत्तियोंसे त्रस्त होना पडेगा। उसी प्रकार यदि मुमुक्षुजन अन्तरात्माके विषयमें मूढ होकर श्रेयोमार्गमें गमन न करें तो अवश्य ही वे संसारमार्गकी तरफ अभिमुख हो जायगे और उसके तापसे विपत्र होंगे। ४६६
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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