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अनगार
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अध्याय
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चौथा अध्याय ।
समर्थ है।
[ चारित्राराधना . ]
अब चारित्राराधना क्रमसे प्राप्त है । अत एव उसीके प्रति मुमुक्षुओंको उत्साहित करते हैं । :सम्यग्दृष्टिसुभूमिवैभवलसद्विद्याम्बुमाद्यद्दया, -
मूलः सहतसुप्रकाण्ड उदयद्गुप्त्यग्रशाखाभरः । शीलोद्यद्विपः समित्युपलतासंपद्गुणोद्धोद्गम, — श्छेत्तुं जन्मपथक्कुमं सुचरितच्छायातरुः श्रीयताम् ॥ १ ॥
दर्शनविशुद्धिरूपी प्रशस्त भूमिके वैभवसे स्फुरायमानताको प्राप्त होते हुए समीचीन श्रुतज्ञानरूपी ज. लसे जिसका दयारूपी मूल अपना कार्य करनेकेलिये उदृप्त रहा करता है, समीचीन व्रतोंका समूह ही जिसका सुंदर प्रकाण्ड - स्कन्ध है, और जिसकी गुप्तिरूपी अग्रशाखाओंका भार उदयको प्राप्त - उच्छ्रित रहा करता है, एवं शीलवतोंका रक्षण ही जिसका विटप - विस्तार है, तथा समितिरूपी उपलताएं-छोटी छोटी शाखाएं ही
१ – उस प्रभाव अथवा अचिन्त्य शक्तिविशेषको यहांपर वैभव समझना चाहिये जो कि अपना कार्य करने में
२ - दुःखोंसे पीडित हुए प्राणियों के त्राणकी अभिलाषाको दया कहते हैं ।
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