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________________ बनार उनमें चार अंगुलका अंतर रखकर समरूपमें स्थापित करने चाहिये। तथा उसी समय दोनों हार्थोकी अंजलि भी बनानी चाहिये । एक भक्त और एक स्थानमें क्या मेद है सो वताते है: शुढे पादोत्सृष्टपातपरिवेषकभत्रये । भोक्तुः परेप्येकभक्तं स्यात त्वेकस्थानमेकतः ॥ १५ ॥ जहाँपर भोजन क्रियाका प्रारम्भ किया है वहाँपर और उसके सिवाय दूसरी जगह भी, जहां पर रखकर आहारके लिये खडे होते हैं, और जहां उत्सृष्ट गिरता है, एवं जहां खड़े होकर परिवेशक-परोसकर देने वाला दाता आहार देता है इन तीनों ही शुद्ध-जीववधादि दोषोंसे रहित स्थान पर खडे होकर मोजन करनेवाले अनगारके एकमक्त समझना चाहिये । और दूसरी जगह न जाकर जहां भोजन क्रिया प्रारम्भ की है वहीं पर उक्त तीन भूमियोंकी शुद्धि देखकर भोजन करनेवाले के एक स्थान समझना चाहिये। भावार्थ-भूमित्रयकी शुद्धि देखना तो दोनों में ही समान है। किंतु विशेषता यह है कि जहाँपर एक जगह भोजन क्रियाका प्रारम्भ करके किसी कारणसे वहां भोजन न कर दूसरी जगह जाकर किया जाता है वहां एक भक्त तोपरन्तु एक स्थान नहीं है। और जहांपर भोजन क्रियाका प्रारम्भ किया है वहीं भोजन करने में एक स्थान भी है और एक भक्त भी है। इसके सिवाय एकमक्त तो अट्ठाईस मूलगुणों से एक है और एकस्थान यह उत्तर गुण है, इस अपेक्षासे भी दोनोंमें अंतर है । इसी बातको यहां बताते हैं: अकृत्त्वा पादविक्षेपं भुञ्जानस्योत्तरो गुणः । एकस्थानं मुनेरेकभक्तं त्वनियतास्पदम् ॥ ९६ ॥
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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