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________________ अनगार नहीं हूं, मैं अपने चिदात्माका ही अनुभविता हूं।" इत्यादि सभी मूल कर्म और उनकी उत्तर प्रकृतियों के विषयमें विचार करके उनके फलका विशेषरूपसे और नानाप्रकारसे प्रत्याख्यान करना चाहिये। जैसाकि कहा भी है कि: - विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भक्तिमन्तरेणैव । संचेतयेऽहमचल चतन्यात्मानमात्मनत्मानम् ।। ___ मैं इस समय अपने अचल चैतन्यस्वरूप आत्माका स्वयंही अनुभव कर रहा हूं । अतएव ये मेरे कर्मरूपी विषवृक्षोंके फल विना भक्तिकेही झडजाय । और भी कहा है कि: निःशेषकर्मफलसंन्यसनान्म-वं, सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तिवृत्तः । चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं, कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता ॥ मेरे सम्पूर्ण काँके फल छूट चुके हैं, अथवा मेने उनको छोड दिया है । इसी लिये अब मैं अन्य सम्पूर्ण क्रियाओंमें विहारकग्नेको भी छोडनेमें प्रवृत्त हुआ हूं । अब मैं अन्य सब क्रियाओंमें संचार करनेसे विमुख होकर केवल चैतन्यस्वरूप आत्मतत्वका पुनः पुनः अथवा प्रचुरतासे अनुभव करनेकी क्रिया ही अचलतया लीन हो रहा हूं। मेरी इस अचलताको अनंतकाल धारण करे, अर्थात इस आत्मानुभवन रूप क्रियामें अनंतकालतक अचल बना रहूं । इसी तरह और भी कहा है कि: यः पूर्वमावतकर्मविपदमामा, मुक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः । आपातकालरमणीयमुदरम्य, निष्कमशर्ममबभेति दशान्तर सः॥ जी मध्य अपने आप ही ट्रेन रहेकरें अपने ही परिणामोसे पूर्वकालमें संचित पापकर्म रूपी विषयों के फलीका अनुभवने नहीं करती है वह तत्काल भी रमणीय और परिपाकमें भी मधुर तथा कैमोसे रहित किंतु सुख मय अपूर्ण अवस्थाको प्रति हुषा करती है। बध्याय NARENESIM
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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