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________________ सहसोपद्रवभवनं स्खमुक्तिभवने स्वमौनभङ्गश्च । संयप्रनिर्वेदावपि बहवोऽनशनस्य हेतवोन्येपि ॥०॥ अनगार ५५६ अन्तराय शब्दका अर्थ ऊपर बताया जाचुका है कि भोजन छोडदेनेके कारणोंको अन्तराय कहते हैं । इस अर्थपर विचार करनेसे अन्तरायके ३२ ही भेद हैं ऐसा निर्धारण-नियम नहीं किया जा सकता। उपर्युक्त काकप्रभृति अन्तरायोंकी तरह और भी बहुत मे भेद हो सकते हैं। यथा-चाण्डालादिका स्पर्श होजाना, कलह होना, अपने इष्ट अथवा मुख्य व्यक्तिका मरण होजाना, जिस किसीसे पापमय होना, लोगोंमें निन्दाका होना तथा साधर्मीका संन्यासमरण होजाना, यद्वा जिस गृहमें भोजन कर रहे हों उसमें अकस्मात् उपद्रवका हो उठना, जो कि मोजनके समय अवश्य ही पालनीय है ऐसे अपने मौनका अज्ञानसे अथवा प्रमादसे भङ्ग होजाना, इसी प्रकार संयम-प्राणिरक्षा और इन्द्रियोंका दमन करने के लिये परिणामोंका निग्रह करना, तथा निर्वेद-संसार शरीर और भोगोंके विषय में वैराग्यकी सिद्धि और वृद्धिके लिये जो प्रयत्न किया जाय वह भी अन्तराय कहा जा सकता है। अत एव यद्यपि अन्तरायके ३२ भेद गिनाये हैं किन्तु अर्थकी अपेक्षासे उसके अनेक भेद हो सकते हैं। आहार ग्रहण करनेके कारणोंको बताते हैं:-- अच्छमं संयम स्वान्यवैयावृत्त्यमसुस्थितिम् । वाञ्छन्नावश्यकं ज्ञानध्यानादींश्चाहरेन्मुनिः ॥११॥ अध्याय क्षधाबाधाका उपशमन, संयमकी सिद्धि और स्वपरकी वैयावृत्य-आपत्तियोंका प्रतीकार करनेके लिये तथा प्राणोंकी स्थिति बनाये रखनेके लिये एवं आवश्यकों और ध्यानाध्ययनादिको निर्विघ्न चलते रहने के लिये मुनियों को आहारग्रहण करना चाहिये. भावार्थ- साधुओंको आत्मकल्याणका सहायक समझकर ही आहार ग्रहण करना चाहिये नकि शरीरको सुदृढ सुंदर और सतेज बनाये रखनेकेलिये अथवा रसनेंद्रियादिकोंकी वृप्तिकेलिये । जैसा कि कहा भी है कि,
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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