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असगार
स्याजधयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यडो नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः ॥ वामोंघिदक्षिणोरूवं वामोपरि दक्षिणः ।
क्रियते यत्र तद्धीरोचित्तं वीरासनं स्मृतम् ॥ जब एक जंघाका मध्यभाग दूसरी जंघामे मिल जाय तब उस आसनको पयासन कहते हैं। दोनों पैरोंके उपर जंघाओंके नीचेके भागको रखकर नाभिके नीचे ऊपरको हथेली करके ऊपरनीचे दोनों हाथोंको रखनेसे पंर्यकासन होता है। दक्षिण जंघाके ऊपर वामपैर और वाम जंघाके ऊपर दक्षिण पैर रखनेसे वीरासन बताया है जो कि धौर पुरुषोंके योग्य है। वन्दनाके योग्य आसनोंका स्वरूप बताकर स्थानविशेषका वर्णन करते हैं।--
स्थीयते येन तत्स्थानं बन्दनायां द्विघा मतम् ।
उद्भीभावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथावलम् ॥ ८४॥ वन्दनाके प्रकरणमें स्थान शब्दका अर्थ यह होता है कि वन्दना करनेवाला शरीरकी जिस आकृति या क्रियाके द्वारा एक ही जगहपर स्थित रहे या ठहरा रहे उसको स्थान कहते हैं। यह ठहरना दो प्रकारसे हो सकता है-एक खडे रहकर, दूसरा बेठकर । अतएष स्थानके दो भेद हैं, एक उद्रीभाव दूसरा निषधा । वन्दना करनेवालोंको अपनी शक्तिके अनुसार इन दो प्रकारके स्थानोंमसे चाहे जौनसे स्थानका उपयोग करना चाहिये। जैसा कि कहानी कि:
स्थीयते येन तत्स्थानं डिप्रकारमुदाहृतम् ।।
बन्दना क्रियते यस्मादुद्रीभूयोपविश्य वा ॥ ___ अर्थात् -जिसके द्वारा स्थित रहा जाय उसको स्थान कहते हैं। यह दो प्रकारका होता है क्योंकि वन्दना रखडे होकर अथवा बैठ कर दोनो ही तरहसे की जाती है।