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________________ जिनका मुख भीतरसे बिलकुल सूखगया है ऐसे साधुजन यदि कदाचित् ऐसे वनमें जाकर प्राप्त हो जाय कि जिसके सभी प्रान्तभाग तत्काल लगी हुई अग्निसे जल रहे हों और फिर भी वे अपनी उष्ण बाधाका कुछ भी विचार न कर नरकादिकोंमें होनेवाली उष्णताकी महा वेदनाओंका स्मरण करें तो कहना चाहिये कि वे महा मुनि उष्ण परीषहके सहन करनेवाले हैं। भावार्थ-ऊपरके इलोकमें नरकोंकी शीतवेदनाका और इस श्लोकमें उष्णवेदनाका उल्लेख किया है। इसका कारण यह है कि आदिके चार नरकोंमें और पांचव नरकके चार भागों से तीन भागोंमें उष्णवेदना हुआ करती है। बाकी पांचवें नरक चतुर्थभागमें और छठे तथा सातवें नरकमें शीत वेदना हुआ करती है। दंशमशक परीषहविजयका वर्णन करते हैं:दंशादिदंशककृतां बाधामघजिघांसया । निःक्षोभं सहतो दंशमशकोमीक्षमा मुनेः ॥ ९३ ।। डांस मच्छर मक्खी पिस्सू वर ततैया दीमक खटमल कीडा मकोडा चींटी बिच्छू आदि काटनेवाले जितने कीटक-क्षुद्र प्राणी हैं उनके काटनेसे उत्पन्न हुई पीडाको जो साधु अशुभ कर्मोदयका नाश करनेकी इच्छासे निश्चलचित्त होकर सहन करता है उसके दंशमशकपरीषहका विजय माना जाता है। नाग्न्य परीषहके जीतनेवाले साधुओंका स्वरूप बताते हैं: निर्ग्रन्थनिभूषणविश्वपूज्यनाग्न्यव्रतो दोषयितुं प्रवृत्ते । चित्तं निमित्ते प्रबलेपि यो न स्पृश्यत दोषैर्जितनाग्न्यरुक् सः॥ ९४ ॥ वामदृष्टि शापाकर्णन कामिनीनिरीक्षण आदि जिनका प्रतीकार नहीं किया जा सकता ऐसे प्रबल कार- । णोंके, मनको मलिन कानेके लिये विकारकी तरफ ले जाने के लिये प्रवृत्त होनेपर भी जिस साधुको वे दोष छ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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