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________________ SES धनगार REETHAROSSESSAGE यासां प्रभङ्गमात्रप्रसरदरभरप्रक्षरत्सत्वसारा, वाराः कुर्वन्ति तेपि त्रिभुवनजयिनश्चाटुकारान् प्रसत्त्यै। तासामप्यङ्गनानां हृदि नयनपथेनैव संक्रम्य तन्वन्, याश्चाभङ्गेन दैन्यं जयति सुचरितः कोपि धर्मेण विश्वम् ॥४३॥ । समस्त संसारमें प्रसिद्ध तथा तीनों लोकोंको भी जीतनेकी शक्ति रखनेवाले वीर पुरुष भी जिनका कि स च और सार-विवेक और बल जिन अङ्गनाओंके केवल कटाक्षपातरूपी वाणके लगते ही उत्पन्न हुए त्रासके बाद्रेकसे समूल नष्ट होजाते हैं। अत एव उनको प्रसन्न करनकोलये चाटुकार-अनुकूल करनेवाले अर्थके द्योतक सराग दीन वचन कहा करते हैं उन्ही अङ्गनाओंके हृदयमें कोई विरल पुरुष ही ऐसे होते हैं अथवा काम देव ही ऐसे होते हैं जो कि केवल दृष्टिमार्गसे ही प्रविष्ट हो जानेपर भी अखण्ड ब्रह्मचर्यके पालन करनेवाले होनेकेकारण उनकी याश्चाका भंग कर रागके स्थानमें दीनता-उतरे हुए चहरे आदिके द्वारा प्रकट होनेवाले मनस्ताप को बढाते हैं और पुण्यके प्रतापसे समस्त संसारपर विजय प्राप्त करलेते हैं। भावार्थ-कामदेवोंको पुण्य के प्रतापसे इतना सुंदर रूप प्राप्त होता है कि जिसको देखते ही वे कमनीय कामिनियां भी उनपर मुग्ध हो जाती हैं कि जिनको तीन लाकके जीतनेकी शक्ति रखनेवाले भी वीर पुरुष वश नहीं कर सकते । किंतु वे कामदेव उन कामिनियोंकी याश्चाका इस तरहसे भंग करदेते हैं कि जिससे उनके मुखपर दीनता व्यक्त होने लगती है। विद्याधरपना भी धर्मविशेषसे ही प्राप्त होता है, यह बात दिखाते हैं । विद्येशीभृय धर्माद्वरविभवभरभ्राजमानैर्विमानै, अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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