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खनगार
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बच्याय
अर्थात कायोत्सर्ग करने में देव मनुष्य या तिर्यंचोंके द्वारा किसी तरहका उपसर्ग आ उपस्थित हो तो ओंको सहना चाहिये, क्योंकि:
साधस्तं समानस्य निष्कम्पीभूतचेतसः । पतन्ति कर्मजालानि शिथिलीभूय सर्वतः ॥ यथाङ्गानि विभिद्यन्ते कायोत्सर्गविधानतः । कर्माण्यपि तथा सद्यः संचितानि तनूभृताम् ॥ यमिनां कुर्वतां भक्त्या तनूत्सर्गमदूषणम् । कर्म निर्जीयते सद्यो भवकोटिभ्रमार्जितम् ॥
जो साधु निष्कम्प होकर चित्तमें जरा भी चलायमान न होकर इन उपसगों या परीषहोंका सहन करता है उसके सम्पूर्ण कर्मजाल शिथिल - जीर्ण होकर झड जाते हैं। जिस प्रकार कायोत्सर्ग करने से शरीर में विश्लेषण होजाता है—शरके स्कन्ध ढीले पडकर निर्जीर्ण होजाते हैं उसी प्रकार प्राणियों के संचित कर्म भी तत्काल निजीर्ण हो जाया करते हैं । अत एव जो संयमी इस कायोत्सर्गका भक्तिपूर्वक और अतीचार रहित पालन करता है उसके कोट्यों भवोंमें भ्रमण करनेसे भी संचित हुए कर्म क्षणमात्र में ही निर्जीणें हो जाया करते हैं ।
जो योगी नित्य या नैमित्तिक क्रिया काण्डका अनुष्ठान करनेमें सदा दृढ प्रयत्न रहा करता है वह परम्परया अवश्य ही मोक्षका लाभ लिया करता है, ऐसा उपदेश देते हैं:
नित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मूलयन कर्मणा,
योऽभ्यासेन विपाचयत्यमलयन् ज्ञानं त्रिगुप्तिश्रितः । स प्रोद्बुद्धनिसर्गशुद्धपरमानन्दानुविद्धस्फुर, - द्विश्वाकारसमग्रबोधशुभगं कैवल्य मास्तिघ्नुते ॥ ७७ ॥
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धम •
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