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________________ बनराय त्यागो देहममत्वस्य तनुत्सृसिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादिविभेदेन चतुर्विधा ।। आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपविष्टोपविष्टाख्या कथ्यते मा तनूत्मृतिः॥ धर्म्यशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपषिष्टोत्थितां सन्तस्तां वदन्ति तनूत्सृतिम् ।। आर्तरोद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । तामुत्थितोपविष्टाख्यां निगदन्ति महाधियः ।। धर्म्यशक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । उत्यितोत्थितनामानं तां भाषन्ते विपश्चितः ।। अर्थात्-शरीरसे ममत्वके छाडदेनको कारोत्सर्ग कहते हैं। इसके उपविष्टापविष्ट आदि चार भेद । बैठकर आत गैद्रका चिन्तवन करना उपविष्टापविष्ट कायोत्सर्ग समझना । बैठकर धर्म्य शुक्लका चिन्तवन करना उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग है। खडे होकर आत रौद्रका चिन्तवन करना उत्थितोपविष्ट कायोत्सर्ग है । और खडे होकर धर्म्य शुक्लका चिन्तवन करना उत्थितोत्थित नामका कायोत्सर्ग बताया है। शरीरसे ममत्वका त्याग विना किये अनशन आदि व्रतोंके करनेपर भी कोई भी मुमुक्षु अपनी आत्माकी इष्ट सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । इसी बातको स्पष्ट करते हैं: जीवदेहममत्वस्य जीवत्याशाप्यनाशुषः । जीवदाशस्य सध्यानवैधुर्यात्तत्पदं कुतः ॥ १२ ॥ जिस प्राणोके अंतरङ्गमें शरीरके प्रति ममत्वमाव जागृत है वह कैसा भी अनशनादि व्रत करै परन्तु उसके भोगोपभोगके विषयोंको प्राप्त करनेकी इच्छा भी अवश्य जीवित रहा करती है. और जिसके इस लोक सम्बन्धी अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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