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________________ बनगार २५३ बध्याय ३ यह मन:पर्ययज्ञान दो प्रकारका है; एक ऋजुमति दूसरा विपुलमति । ऋजुमति अकुटिल-सरल मन वचन कायवर्ती पदार्थोंको विषय करता है अत एव उसके तीन भेद हैं । विपुलमति छह प्रकारका है, क्योंकि वह कुटिल और अकुटिल दोनो ही प्रकारके मन वचन कायवर्ती छह तरहके व्यंजन पदार्थोंका ग्रहण करता है । ऋजुमति मन:पर्यय त्रिकालवर्त्ती रूपी पदार्थोंको तभी विषय करता है जब कि उनका चिन्तवन करनेवाला वर्तमान हो । किन्तु विपुलमति, चिन्तवन करनेवाला भूत भविष्यत् या वर्तमान कैसा भी हो, त्रिकालवर्ती रूपी पदार्थोंको वि य करता है। खिले हुए अष्टदल कमलके समान हृदयमें जो द्रव्यमन विराजमान है वह इस मन:पर्यय ज्ञानका कारण है। इस प्रकार इन मति अवधि और मनःपर्यय ज्ञानसे भी मुमुक्षुओं को यथायोग्य विषयमें श्रुतकी तरह उपयोग लेना चाहिये । श्रुतकी सामग्री और स्वरूप इन दोनोंका निरूपण करते हैं। स्वावृत्त्यपायेऽविस्पष्टं यन्नानार्थप्ररूपणम् । ज्ञानं साक्षादसाक्षाच्च मतेर्जायेत तच्छ्रुतम् ॥ ५ ॥ श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होजानेपर नाना पदार्थोंके - उत्पादव्ययधौव्यरूप अथवा अनेकांतात्मक वस्तुओंके समीचीन स्वरूपका निश्चय करसकनेवाले अस्पष्ट ज्ञानको श्रुत कहते हैं । यह श्रुत मतिज्ञानपूर्वक हुआ करता है; किन्तु श्रुतके पूर्वमें मति कहीं साक्षात् - अव्यवहित और कहीं असाक्षात् व्यवहित हुआ करती है । भावार्थ - श्रुतज्ञान दो प्रकारका है; एक शब्दजन्य दूसरा लिंगजन्य । घट शब्द के सुननेरूप मतिज्ञान के धर्म २५३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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