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________________ बनगार २५४ बाद जो घटपदार्थका ज्ञान होता है उसको शब्दजन्य श्रुत और चक्षुरादिके द्वारा यह धूम है ऐसा मतिज्ञान होजानेपर जो अगि आदिका ज्ञान होता है उसको लिङ्गजन्य श्रुत कहते हैं। इसके अनंतर घटज्ञानके बाद जो जलधारणादिकका और, अग्निज्ञानके बाद जो उसके पाकादिकका ज्ञान होता है उसको भी श्रुत कहते हैं । किंतु पहले श्रुतके मतिज्ञान साक्षात् पूर्व में है और दूसरे श्रुतके असाक्षात् पूर्वमें । फिर भी दोनो ही श्रुतज्ञानोंको मतिपूर्वक ही कहा है; क्योंकि आगममें मतिपूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको भी उपचारसे मति कहा है | यथाः-- मतिपूर्व श्रुतं दक्षरुपचारान्मतिमता। मतिपूर्व ततः सर्व श्रुतं ज्ञेयं विचक्षणः ॥ आचार्योंने मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको भी उपचारसे मति ही माना है। अत एव विद्वानोंको सभी श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही समझने चाहिये । और भी कहा है कि-- अर्थादर्थान्तरज्ञानं मतिपूर्व श्रुतं भवेत् । शाब्दं तल्लिङ्गज चात्र द्वधनेकद्विषडभेदगम् । मंतिज्ञानपूर्वक जो अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान होता है उसको श्रुत कहते हैं। वह दो प्रकारका है। शब्दजन्य और लिंगजन्य । तथा अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट इस तरहसे भी श्रुतके दो भेद हैं। अंगवायके अनेक भेद और अंगप्रविष्टकै बारह मेद हैं। निरुक्तिकी अपेक्षा, जो सुना जाय उसको श्रुत कहते हैं । किंतु उसका अर्थ ज्ञानविशेष ही है, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है। यह श्रुत दो प्रकारका होता है; एक ज्ञानरूप दूसरा शब्दरूप। ज्ञानरूपको भावश्रुत और शब्दरूप को द्रव्यश्रुत कहते हैं। जिस ज्ञानके होनेपर वक्ता शब्दोंका उच्चारण करता है या कर सकता है उसको अथवा श्रोताके शब्द सुननेके बाद जो ज्ञान होता है उसको भार्वश्रुत कहते हैं। इसीका नाम स्वार्थ भी है। क्योंकि २५४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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