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________________ जनमार ३५४ अध्याय ४ संसारके विषय दुर्निवार हैं, उनका परित्याग करना सहज नहीं है। वे मुनियोंके भी मनमें विकार उस्पा कर देते हैं। अत एव उनका परिहार करने के लिये जो समर्थ नहीं हैं ऐसे विनेयोंको उस परिहारके बि पयमें सावधान -- उयुक्त करते हैं:-- बल्यसुं घुणवद्वजमीष्टे न विषयव्रजः । मुनीनामपि दुष्प्रापं तन्मनस्तचमुत्सृज ॥ ६२ ॥ जिस प्रकार धुन बज्रको नहीं बंध सकता उसी प्रकार जिस मनको मे इन्द्रियोंके विषय रूपादिक नहीं वैध सकते - विकृत नहीं कर सकते वह मन सुनियों- तपस्वियोंको भी दुर्लम है । अत एव हे मुसो ! तू इन दुर्निवार विषयोंको छोड । भावार्थ - जिस मनको वेधनेकेलिये ये संसारके दुर्निवार भी विषय सर्वथा असमर्थ और दुर्बल समझे जा सकें ऐसे सुदृढ मनको प्राप्त करना ही मुनियोंका कर्तव्य है । इसलिये है मुमुक्षो ! तू इन विषयोंको ऐसा छोड कि जिससे ये तेरे मनको रंचमात्र भी विकृत न करसकें और तेरे सुदृढ मनके सामने ये दुर्निवार होनेपर भी ऐसे समझे जा सकें जैसे कि वज्रके सामने घुण । घुम वज्रको बेधनेकेलिये बिलकुल असमर्थ और दुर्बल है; क्योंकि वह काष्ठको वेघ सकता है; वज्रको नहीं । उसी प्रकार ये विषय भी चाहे दुर्बल हृदयके संसारी प्राणियोंको विकृत करा कर सकें पर तेरे मनको बिलकुल भी नहीं। तभी ब्रह्मचर्य व्रत पल सकता और आन्महित सिद्ध हो सकता है त्रियों में वैराग्यका होना ब्रह्मचर्यका मूल है । अत एव पांच भावनाओंके द्वारा उस वैराग्यको प्राप्त ब्रह्मचर्यको बढाने की शिक्षा देते हैं: - नित्यं कामाङ्गनासङ्गदोषाशौचानि भावयन् । कृतार्थसङ्गतिः स्त्रीषु विरक्तो ब्रह्म वृंहय ॥ ६३ ॥ १ - इस श्लोक के प्रथम चरणका पाठ " कामाङ्गनाङ्गमासङ्ग - " ऐसा भी है। किंतु अभिप्राय एक ही है। यह ३५४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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