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________________ अनगार है, जहाँपर देवकी सीधी दृष्टि नहीं पडती, अथवा जो देवस्थानसे दक्षिणमागकी तरफ है, और जहांपर मनुष्योंका संचार नहीं पाया जाता, जो आकुलताके कारणोंसे रहित, एवं न अत्यंत निकट और न अत्यंत दूरवर्ती है, तथा जो सम्पूर्ण उपद्रवोंसे रहित है, ऐसा ही स्थान साधुओंको समाधि के लिये अंगीकार करना चाहिये । क्रमानुसार कृतिकर्मके योग्य पीठ का स्वरूप बताते हैं। . विजन्त्वशब्दमच्छिद्रं सुखस्पर्शमकीलकम् । स्थेयस्तार्णाधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम् ॥ ८२ ॥ वन्दनाकी सिद्धिक लिउद्यत हुए साधुओंको ऐसे आसनपर बैठना चाहिये जो कि तृण काष्ठ या पत्थर इनमेंसे किसका बना हुआ हो, जिसमें घुण मत्कुण या अन्य ऐसे ही जीव नहीं पाये जाते, जिसमें किसी तरहका शब्द नहीं होता, और जो छिद्र रहित है, जिसका स्पर्श सुखकर है, और जो कील रहित, एवं निश्चल है, तथा उन्नतत्व उद्धतत्व आदि दोषोंसे रहित अर्थात विनयंका बढानेवाला है। बन्दनाके योग्य आसनका तीसरा भेद पद्मासनादिक बताया था। उन पद्मासनादिक-पद्मासन पर्यङ्कासन और वीरासनका की स्वरूप बताते हैं: पद्मासनं श्रितौ पादौ जङ्घाभ्यामुत्तराधरे। ते पर्यङ्कासनं न्यस्तापूर्वोवीरासनं क्रमौ ॥८३॥ जहांपर दोनों पैर जंघाओंसे मिल जाय उसको पद्मासन कहते हैं। और दोनों जंघाओंको तराऊपरएकके ऊपर दुसरीके रखनेसे जो आकार बनता है उसको पर्यङ्कासन कहते हैं। तथा दोनों जंघाओंके ऊपर दोनों पैरोंके रखनेसे जो आकार बनता है उसको वीरासन कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि: त्रिविधं पद्मपर्यवीरासनस्वभावकम् । आसनं यत्नतः कार्य विधानेन बन्दनाम् ।। अन्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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