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________________ अनगार धर्म दो एवं वायुमें एक रूप ही पाया जता है, सो ठीक नहीं है । क्योंकि यह पहले बता चुके हैं कि इनमें से कहीं तो चारो ही गुण उद्भूत होते हैं और कहीं कोई उद्भूत हुआ करता है, और कोई अनुभृत। किंतु प्रत्येक पुद्गलमें सत्ता चारो ही की रहा करती है। क्योंकि यदि ऐसा न माना जायगा तो जलसे वायु और वायुसे जलका स्वरूप बदल जानेपर उसमें नवीन गुण किस तरह उत्पन्न हो सकते हैं ? क्योंकि जो गुण मूलमें नहीं हो वह उसकी पर्यायमें भी नहीं हो सकता । अत एव चारो ही में चारो गुण और चारों को पुद्गल द्रव्य ही मानना चाहिये । इसी प्रकार दिशापदार्थ भी भिन्न नहीं है। उसका आकाशमें अन्तर्भाव होजाता है। क्योंकि आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिमें ही, इधरको पूर्व और इधरको पश्चिम, ऐसा व्यवहार होता है। दिशापदार्थ स्वतंत्र है। इस वातका साधक कोई हेतु या कारण नहीं है। मन दो प्रकारका होता है। एक द्रव्यमन दूसरा भावमन । संज्ञी जीवोंके हृदयस्थानमें जो अष्टदल कमलके आकारका पौद्गलिक स्कन्धविशेष होता है, जिसकी कि सहायतासे जीव विचारादि किया करता है, उसको द्रव्यमन कहते हैं। इसका पुद्गलमें अन्तर्भाव होजाता है। और जो भावमम है वह ज्ञानरूप है । अत एव उसका आत्मामें अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिये मन नामका भी कोई स्वतंत्र द्रव्य सिद्ध नहीं होता। इसी तरह और भी जो अनेक प्रकारसे लोगोंने द्रव्यकी कल्पनाएं कर रक्खी हैं सो ठीक नहीं हैं। किन्तु उपर्युक्त छह द्रव्य ही प्रमाणसे सिद्ध हैं जो कि अपने गुणपर्याय स्वभावके कारण कर्थचित् नित्य और कथंचित् अनित्य. कथंचित् भिन्न कथंचित् अभिन्न, कथंचित् एक कथचित् अनेक, इत्यादि अनेक अपेक्षाओंसे अनेकरूप हैं । द्रव्यरूपकी अपेक्षा जीवादिक समस्त वस्तु नित्य है; क्योंकि, उनमें यह वही है, ऐसा ज्ञान होता है। जो देवदत्त बाल्यावस्थामें था वही. अब युवावस्थामें भी है इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञानके द्वारा निर्बाध व्यवहार सभी लोग करते हैं। इसका कारण द्रव्यका नित्य स्वभाव ही है । इसी तहर पर्यायदृष्टि से सभी वस्तु अनित्य हैं। क्योंकि बाल्यावस्थासे युवावस्था भिन्न है ऐसा सभी लोग मानते हैं । और यह ज्ञान भी प्रमाणसे सत्य सिद्ध है। किंतु बाल्यावस्थाके विनाश और युवावस्थाके उत्पादके विना यह व्यवहार नहीं हो संक्रतो, 'जो कि द्रव्यको अनित्य माने विना नहीं बन सकता। अत एव द्रव्य के उक्त युक्तिसिद्ध स्वरूप 'और भेदोंको वैसा ही जानकर तथाभूत श्रद्धान करना चाहिये । " बध्याय त .
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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