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________________ अनमार ४०७ अध्याय ४ भावार्थ- मूर्छा के सर्वथा परित्यागको ही आकिञ्चन्य महामत कहते हैं। मोहनीय कर्मके उदयसे आत्मा के वास्तविक स्वरूपसे भिन्न समस्त अन्तरङ्ग और बाह्य पदार्थों में होनेवाले ममत्व परिणामको मूर्छा कहते हैं । मूर्च्छाका आकार बतानेके लिये इति और एवं इन दो शब्दोंका प्रयोग किया है. जिनमेंसे इति शब्द स्वरूप अर्थी अपेक्षासे हैं। तदनुसार " यह जगत मेरा ही स्वरूप है, " अथवा " इस जगत्स्वरूप ही मैं हूं, " इस तरहके आवेशको मूर्च्छा कहते हैं । एवं शब्द प्रकार अर्थकी अपेक्षासे है। तदनुसार मैं याज्ञिक हूं, मैं परिवाड हूं, मैं राजा हूं. मैं पुरुष हूं, मैं स्त्री हूं, इत्यादि मिथ्यत्वादिक परिणामरूप अभिनिवेशोंको मूर्छा कहते हैं । कहा भी कि 5 या मुच्छ नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहोयमिति । महोदयादुदीणा मूर्छा तु ममत्त्वपरिणामः ॥ मोहके उदयसे होनेवाले ममत्यपरिणामोंको मूछी कहते हैं। और इसका नाम परिग्रह भी है । यद्यपि यहां पर सामान्य शब्द मोह ही लिखा है किन्तु फिर भी मूर्छाकी उत्पत्तिमें विशेष कर लोभपरिणाम ही कारण है। क्योंकि अन्तरङ्ग और बाह्य पदार्थोंके प्राप्त करनेकी अभिलाषारूप परिग्रहसंज्ञा प्रधानतया लोभके ही निमित्तसे हुआ करती है। जैसा कि आगममें भी कहा है कि उवयरणदंसणेण य तम्सुवओगेण मुच्छिदाए य । लोहसुदीरणाए परिग्गद्दे जायदे सण्णा ॥ भोगोपभोगके साधनभृत पदार्थों के देखनेसे अथवा उनका उपयोग करनेसे यद्वा ममत्व परिणामोंके होनेपर और अन्तरङ्गमें लोभ कषायका उदय या उदीरणा होनेपर, इन चार कारणों से जीवको परिग्रहमें मंज्ञा - वांछा हुआ करती है । १. क्योंकि मिध्यात्व रागद्वेष तथा हास्यादिक कषायोंको अंतरंग परिग्रह में ही गिना है । ४०७
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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