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________________ बनगार ४३४ प्राय करके लोगोंके मित्र ऐसे ही हुआ करते हैं जो कि उनको अधर्मकर्म-पाप क्रियाओंमें ही प्रवृत करते तथा सहायक हुआ करते हैं । देखते हैं कि धर्मपुत्र-युधिष्ठिरने अपनी अन्तरङ्ग संतती-निजात्माके लिये पापकर्मकी प्राप्तिके उपायभूत और बहिःसंतति-निज कुल के िलये--कृष्णवर्मा अग्निके समान-कौरव कुलका संहार करनेवाले कृष्णके साथ प्रीति की थी। भावार्थ---जब धर्मपुत्रकी विष्णु के साथ की गई मित्रताने अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग अहित ही किया तब दूसरे साधारण लोगोंकी मित्रताका तो कहना ही क्या है । अत एव समस्त पुरुषार्थोंके मूल कारण धर्मका जो पुत्र है उसको इस मित्रतापर कभी विश्वास न करना चाहिये। जो अपने धर्मका अनुवर्तन करना चाहते हैं उन्हे उचित है कि अन्तरङ्ग-आत्मा और बाह्य -कुलादिककेलिये कृष्णवा-पापमार्ग अथवा अग्निके समान समझकर इस लौकिक मित्रताको दहीसे छोडदें । क्योंकि यह हर प्रकारसे कृष्ण-काली ही है। जो इस लोकमें संचयमें सहायता करनेवाले हैं वे सब मोहके ही उत्पन्न करनेवाले और बढानेवाले हैं अत एव उनकी त्याज्यता प्रकट करते हुए पारलौकिक कार्यों के साधनमें अवलम्ब देनेवाले मित्रोंका नीचली दशामें-सम्पूर्ण परिग्रहके छोडनेकी पूर्ण सामर्थ्य न होनेतक अनुसरण करनेका उपदेश देते है:-- निश्छद्म मेद्यति विपद्यपि संपदीव, यः सोपि मित्रमिह मोहयतीति हेयः । श्रेयः परत्र तु विबोधयतीति ताव च्छक्यो न यावदसितुं सकलोपि सङ्गः ॥ ११९ ॥ संपत्ति के समय में स्नेही मित्र बन्धु बान्धव तथा सहायक बननेवाले तो बहुत हैं। किंतु उनकी यहांपर चर्चा नहीं है। क्योंकि ऐसोंको संसारमें कोई मित्र भी नहीं कहता । परन्तु जो व्यक्ति संपत्तिकी तरह विपत्तिम अध्याय ४३४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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