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अनगार
कूटस्थस्फुटविश्वरूपपरमब्रह्मोन्मुखाः सम्मताः, सन्तस्तेषु च साधुसत्यमुदित्तं तत्तीर्णसूत्रार्णवैः। आ शुश्रूषुतमःक्षयात्करुणया वाच्यं सदा धार्मिकै,
|राज्ञानविषादितस्य जगतस्तद्धयेकमुज्जीवनम् ॥ ३५ ॥ - चराचर जगतकी भूत भविष्यत वर्तमान अनन्त पर्यायस्वरूप और जो द्रव्यरूपतया नित्य तथा स्पष्ट | संवेदनके द्वारा जाना जाता है ऐसे परमब्रह्म-आत्मज्योतिस्वरूपमें परिणत हानेके लिये जो उद्युक्त रहते हैं उनको सत्-सत्पुरुष कहते हैं और उस परब्रह्मकी तरफ उन्मुखता होने में जो उपकारक हो उसको सत्य कहते हैं। अत एव धार्मिक आचरण करनेवाले प्रवचनसमुद्रके पारदर्शियोंको श्रोताओंके दुःखका उच्छेदन करनेकी करुणापूर्ण इच्छासे सदा ऐसे ही वचन बोलने चाहिये जो कि उनको उक्त आत्मज्योतिकी तरफ उन्मुख करनेवाले हों और सो भी तबतक बोलने चाहिये जबतक कि उनके सुननेकी इच्छा रखने वालोंके उस विषयके अज्ञानका नाश न हो जाय । क्योंकि यह सत्य वचन घोर अज्ञानरूपी विषसे मूर्छित-अभिभूत हुए बहिरात्मा प्राणियों के उजीवित-प्रबुद्ध करनेकेलिए आद्वितीय रसायनके समान है।
भावार्थ-सत् शब्दका अर्थ आत्मस्वरूप है। अत एव जिन क्रियाओंके निमित्तसे आत्मस्वरूपकी त. रफ प्रवृत्ति हो उनको ही सत्य कहते हैं। इसी लिये साधु ऐसे वचन बोलता है कि जिनसे श्रोताओंकी प्रवृत्ति उस आत्मस्वरूपकी तरफ होजाय उसीको सत्यवक्ता और उसके वचनोंको सत्यवचन कहते हैं।
प्रकृत चारित्रके विषय में सत्यशब्दका सम्बन्ध तीन जगह किया गया है,-सत्यमहाव्रतमें, भाषासमितिमें और सत्यधर्ममें; किंतु इन तीनो सत्योंके स्वरूपमें अन्तर क्या है सो बताते हैं
असत्यविरतौ सत्यं सत्स्वसत्स्वपि यन्मतम् । वाक्समित्यां मितं तडि धर्मे सत्स्वेव बहपि ॥ १६ ॥
बध्याय