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________________ बनगार ७३४ बध्याय ८ इसीलिये मिथ्यात्वादिक – मिथ्यात्व असंयम कपाय और योग इन चार पूर्वसंचित पौगालिक भावोंसे उन प्रसिद्ध आठ प्रकारके मूर्त रूप रस गंध स्पर्श युक्त ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध करता रहा, तथा उनके उदयसे उत्पन्न हुए अज्ञानमय मिथ्यादर्शन और रागादि विभावरूप परिणत हो हो कर आज तक इस संसार में दुःख और क्लेशको ही भोगता रहा हूं । भावार्थ - अनादि काल से आजतक मेरा आत्मस्वरूपकी तरफ कभी भी वास्तव में लक्ष्य नहीं गया । इसीलिये अब तक मैं कर्मचेतना और कर्मफल चेतनाका ही अनुभव कर केवल दुखों को ही भोगता रहा | दूसरी जगहपर बन्धके कारण मिथ्यात्वादि पांच बताये हैं किंतु यहांपर चार ही लिखे हैं इसलिये किसी प्रकारका विरोध न समझना चाहिये । क्योंकि प्रमादका अविरतिमें अन्तर्भाव हो जानेपर चार भी बन्धके कारण कहे जा सकते हैं। आत्माका कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्वरूप वास्तविक नहीं है, वह परपदार्थ की अपेक्षा से ही है, सो भी जब तक शरीर और आत्माका भेद ज्ञान नहीं होता है तब तक और केवल व्यवहार नयसे ही माना है । वास्तवमें तो आत्माका स्वरूप ज्ञातृत्व ही है। इसी बात को दिखाकर भेद ज्ञानके हो जानेपर शुद्ध निज आत्मस्वरूपका अनुभव करने के लिये प्रयत्न करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं: स्वान्यावऽप्रतियन् स्वलक्षणकलानैय प्रतोऽस्त्रेऽहमि — त्यैक्याध्यासकृतेः परस्य पुरुषः कर्ता परार्थस्य च । भोक्ता नित्य महंतयानुभवनाज्ज्ञातैव चार्थात्तयो,स्तत्स्वान्यप्रविभागबोधबलतः शुद्धात्मसिद्ध्यै यते ॥ ६ ॥ जीव और अजीवका लक्षण तथा स्वरूप भिन्न भिन्न है। किंतु उसको न पहचान कर - आत्मा और शरीर में जो स्वरूपकी विशेषता नियत-सिद्ध है उसको न समझकर अनात्मस्वरूप शरीरादिक में जो ये ही मैं हूं इस तरहका 华際公鍌察会公安、公安 धर्म -- ७३४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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