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________________ नयार अभेदाध्यवसाय होता है उसीसे जीवको कर्मादिकोंका कर्ता और परार्थ-कर्मादिकोंके फलका भोक्ता माना है। अर्थात भेद ज्ञान न होनेतक आत्मा शरीरादिकके विषयमें कर्ता और भोक्ता है किंतु व्यवहारसे ही है न कि निश्चयसे। वास्तवमें तो वह केवल कर्मादिक या उसके फलादिकका ज्ञाता ही है न कि कर्ता या भोका। क्योंकि "अहं"_"मैं" इस उल्लखके द्वारा उसके विषय में नित्य ऐसा ही अनुभव होता है। जैसा कि कहा भो कि: मा कर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इव ह्याहताः, कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः। ऊवं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं, पश्यन्तु च्युतकर्मभावमचलं शतारमेकं परम् ॥ सांख्य जिस प्रकार आत्माको कर्ता मानते हैं उस प्रकार आईत नहीं मानते । आईत लोग जब तक भेद ज्ञान नहीं होता है तभी तक उसको कर्ता मानते हैं, बाद में नहीं। बादमें तो वे उसको स्वयं अनुभवमें आने योग्य प्रत्यक्षस्वरूप नियत अनंतज्ञानका भंडार और सम्पूर्ण कर्म तथा विमावोसे रहित सर्वोत्कृष्ट अद्वितीय निश्चलटंकोत्कीर्ण ज्ञाता मानते हैं। अत एव मुमुक्षुओंको निश्चय करना चाहिये कि अब मैं स्व और परके मेद ज्ञानका बल उदभत हो जानेपर निर्मल निज आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये ही प्रयत्न करूंगा। आत्माके सम्यग्दर्शनस्वरूपका अनुभव करते हैं। यदि टोत्कीर्णकज्ञायकभावस्वभावमात्मानम् । रागदिभ्यः सम्यग्विविच्य पश्यामि सुदृगस्मि ।। ७॥ भले प्रकार-संशय विपर्यय और अनध्यवसायको छोडकर यदि मैं रागादिकसे भिन्न अपने स्वरूपका अनुभव करता हू तो वह एक कर्तृत्वादि भावोंसे रहित टङ्कोत्कीर्ण ज्ञायकमावस्वभाव सम्यग्दर्शनस्वरूप ही अनुभवमें आता है। १-टांकीसे उकेरी हुई मूर्ति के समान जिसका आकार निश्चल और बिलकुल स्पष्ट हो उसको टंकोत्कीर्ण कहते हैं। बध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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