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________________ अनगार ७३६ अध्याय ८ रागादिकसे निजस्वरूपकी भिन्नताका समर्थन करते हैं: - ज्ञानं जानतया ज्ञानमेव रागो रजत्तया । राग एवास्ति नत्वन्यत्तच्चिद्रागोस्म्यचित् कथम् ॥ ८ ॥ ज्ञानका स्वभाव जानना-स्व और परपदार्थोंको अवभासित करना है, अत एव अपने इस स्वभाव के कारण ज्ञान ज्ञान ही रह सकता है, वह अन्यस्वरूप - रागादिरूप नहीं हो सकता। इसी प्रकार रागका स्वभाव इष्टविषयों में प्रीति उत्पन्न करना है । अत एव वह भी अपने इस स्वभावके कारण राग ही रह सकता है - ज्ञानरूप नहीं हो सकता । यही बात द्वेष या मोहादिके विषय में भी समझनी चाहिये । अर्थात् ज्ञानादिक सभी भाव अपने अपने स्वभाव के कारण भिन्न भिन्न रूप नहीं हो सकते, अपने अपने स्वभावमें ही रह सकते हैं, ज्ञान रागादिरूप नहीं हो सकता और रागादिक ज्ञानरूप नहीं हो सकते । ज्ञान ज्ञान ही रहेगा और रागादिक रागादिक ही रहेंगे। जब कि यह बात सिद्ध है तब चित्स्वरूप - ज्ञानस्वभाव मैं अचित् रागद्वेष मोहरूप किस तरह हो सकता हूं ? कभी नहीं हो सकता । इसी बात को संक्षेप में और भी स्पष्ट करते हैं:-- नान्तरं वाङ्मनोप्यस्मि किं पुनर्बाह्यमङ्गगीः । aa कोऽङ्गसङ्गजेष्वैक्यभ्रमो मेऽङ्गाऽङ्गजादिषु ॥ ९ ॥ शरीर और वाणी आदि तो प्रत्यक्ष ही मुझसे सर्वथा बाह्य - पृथक् दीखते हैं अत एव इनके कहना ही क्या किन्तु अन्तरङ्ग --जो दृष्टिगोचर नहीं होते ऐसे अन्त जल्पविकल्पस्वरूप जो वचन या विषय में तो मन हैं त २ - रामादिक यद्यपि स्वसंविदित हैं तो भी परस्वरूपका सवेदन नहीं कर सकते इसलिये उन्हे अचित् ही कहना चाहिये । ७३६.
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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