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________________ अनगार १७४ अध्याय अन्तःकोटीकोटी सागरकी स्थितिवाले कर्मोंके बंधको प्राप्त होनेपर विशुद्ध परिणामोंके संबंधसे सत्कर्मों को संख्यात हजार सागर कम अन्तःकोटीकोटी सागरकी स्थितिसे युक्त करनेपर ही आद्य सम्यक्त्वको ग्रहण कर सकता है। इसी योग्यताको प्रायेगिकी लब्धि कहते हैं। आत्माके परिणामविशेषों की प्राप्तिको करणलब्धि कहते हैं। इसके तीन भेद हैं- अथप्रवृत्त या अधःप्रवृत्त करण अपूर्व करण, अनिवृत्ति करण। इन तीनो करण के क्रमसे करलेनेपर भव्य जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होजाता है । यथा: अथप्रवृत्तकापूर्वानिवृत्तिकरणत्रयम् । विधाय क्रमतो भव्यः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥ अनादि मिथ्यादृष्टि जिसके कि मोहनीय कर्मकी छब्बीस प्रकृति सत्तामें रहा करती हैं अथवा सादि मियादृष्टि, जिसके कि मोहनीय कर्मकी छब्बीस या सत्ताईस अथवा अठ्ठाईस प्रकृतियां सत्ता में रहा करती हैं, जब प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेको उन्मुख होता है तब ऐसे शुभ परिणामोंके अभिमुख होता है कि जिनकी विशुद्ध अन्तर्मुहूर्ततक अनन्तगुणी अनन्तगुणी वृद्धिके द्वारा बढती ही जाती है । एवं जो चार मनोयोगों में से किसी एक मनोयोग से और चार वचनयोगों में से किसी एक वचनयोगसे तथा औदारिक वैक्रियिक काययोगों में से एक काययोगसे, तीन वेद मेसे एक वेदसे युक्त और संक्लेश परिणामोंसे रहित होता है। जिसकी कषाय नष्ट होती चली जाती है। जो साकार उपयोगको धारण करनेवाला और बढते हुए शुभ परिणामोंके निमित्तसे समस्त कर्म प्रकृतियों की स्थितिका व्हास करता हुआ अशुभ प्रकृतियोंके अनुभाग बंधको दूर करता और शुभ प्रकृतियोंके अनुभागबंध को बढाता है। ऐसा ही भव्य जीव उक्त तीन करणोंके करनेका प्रारम्भ करता है जिनका कि प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त है। कमोंकी स्थिति अन्तःकोटीकोटी होजानेपर अधःकरणादिकमें क्रमसे प्रवेश करता है | सभी करणों के प्रथम समय में जीवकी शुद्धि बहुत कम रहा करती है। किंतु प्रतिसमय वह अन्तर्मुहूर्ततक अनन्तगुणी अनन्तगुणी बढती जाती है। तीनो ही करण अन्वर्थ हैं। जो करण- परिणाम अथ नवीन ही प्रवृत्त हों, उनको अथप्रवृत्त करण कहते हैं। क्योंकि इस तरहके परिणाम पहले कभी नहीं हुए । अथवा इस धर्म० १७४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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