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________________ बनगार ४६२ हैं । जो पुरुष इन विषयों में क्षोमरहित रहा करता है वह इस रसका नायक माना जाता है। इसके अनुसार जो धर्म--रत्नत्रयका आराधन करनेमें सदा सोत्साह रहा करता है उसको सप्तम गुणस्थानवर्ती अथवा द्रव्यकी अपेवासे अप्रमत्त संयत समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:--. . णठ्ठासेसपमाओ वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी । अणुवसमगो अखवगो माणणिलीणो हु अपमत्तो ॥ नष्ट होगया है समस्त प्रमाद जिसका और व्रत गुण तथा शीलोंसे युक्त रहकर भी जो ज्ञानी उपशम या क्षपक श्रेणीका आरोहण न कर निरंतर ध्यानमें लीन रहता उसको निरनिशय अप्रमत्त समझना चाहिये । इस प्रकार धर्मके विषयमें वीर रस अथवा वीर चर्यासे युक्त रहनेवाले, हे सिद्धके साधन करनेमें उद्यत ! यदि तेने गुरुकी आज्ञा और आगमके अनुसार शरीरके द्वारा क्रमसे धर्मका भी सहायक समझकर भिक्षा करना स्वीकार करलिया है तो उम विषयमें होनेवाली रागद्वेषपरिणतिको भी तुझे अवश्य ही छोडना चाहिये । क्योंकि इसने भोजनमें अमुक पदार्थ अच्छा दिया, अथवा, इसने अमुक पदार्थ अच्छा नहीं दिया इस तरहके मिक्षाके निमित्तसे जो परिणाम होते हैं वे भूतावेशके समान हैं और साधुओंको उक्त उत्तम पदसे गिरानेवाले हैं। - शरीर और आत्मामें भेद भावनाके बलसे समस्त विकल्पजालको तोड देनेवाले साधुओंके जो शुद्ध । निजात्मस्वरूपकी प्राप्ति होती है उसकी प्रशंसा करते हैं। नीरक्षीरवदेकतां कलयतोरप्यङ्गपुंसोराचि,ञ्चिद्भावाचदि भेद एव तदलं भिन्नेषु को भिद्भमः । इत्यागृह्य परादपोह्य सकलोन्मीलद्विकल्पच्छिदा,स्वच्छेनास्खनितेन कोपि सुकृती स्वात्मानमास्तिनुते ॥ १४४ ॥ ४६२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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