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________________ बनगार औपचारिक विनयके मानस भेदोंको गिनाते हैं:-- निरुन्धन्नशुभं भावं कुर्वन् प्रियहिते मतिम् । .. आचार्यादेरवाप्नोति मानसं विनयं द्विधा ॥ ७३ ॥ मानस विनय दो प्रकारका हो मकता है-१ अशुभ भावोंकी निवृत्ति २ और शुभभावोंमें प्रवृत्ति । अर्थात् आचार्य उपाध्याय स्थविर प्रवर्तक और गणधरादिकोंके विषय में सम्यक्त्वकी विराधना करनेवाले प्राणिवधादिक अशुभभावोंका रोकना, और धर्मकेलिये उपकारक तथा सम्यक्त्व और ज्ञानादिके विषयमें शुभ विचार करना मानस विनय है। इस प्रकार प्रत्यक्ष गुरुजनोंके विषयमें पालन करने योग्य तीन प्रकारके विनयका प्रतिपादन करके परोक्ष गुरुओंके विषय में भी तीन प्रकारके विनयका निरूपण करते हैं:-- वाङ्मनस्तनुभिः स्तोत्रस्मृत्यञ्जलिपुटादिकम् । . परीक्षेष्वपि पूज्येषु विदध्याद्विनयं त्रिधा ॥ ७ ॥ जो दीक्षागुरु श्रुतगुरु तपोधिक आदि गुरुजन परोक्ष हैं-इन्द्रियोंसे परे हैं उनका भी वचन मन और शरीरके द्वारा क्रमने स्तुति स्मृति और अञ्जलिपुटादिक करके मुमुक्षुओंको विनय करना चाहिये । अतएव परोक्ष गुरुओंका भी विनय वचन मन और शरीर की अपेक्षा तीन प्रकारका होता है। अर्थात् वचनके द्वारा उनका गुणस्तवन जयघोष आशीर्वादादि बोलना, मनके द्वारा उनका स्मरण और उनके गुणोंका चिन्तवन आदि करना, तथा शरीरके द्वारा उनको हाथ जोडना नमस्कार करना इत्यादि सब परोक्ष विनय है। यहांपर अपिशब्दसे जो तप गुण या अवस्था आदिकी अपेक्षा अपनेसे छोटे हैं उन मुनियों या श्रावकोंकी भी यथा योग्य विनय करना चाहिये इस बातको सूचित किया है। बध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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