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________________ अनगार परमात्माका पुत्र है तो भ्रमर अथवा मक्खियों के द्वारा पुष्पोंसे पी पी कर उगले हुए रसके समान अथवा जोंकों के द्वारा घावमेसे पी पी कर पुनः उद्वमन किये हुए खूनके समान पापप्रचुर इन्द्रियोंके द्वारा अपने अपने अनु. रूप भोग भोगकर छोडे हुए इन पापबन्धके कारण, अत एव कुत्सित स्पर्शादिक विषयोंको, रागद्वेषको बढाते हुए भोगकर क्यों अपने पिता परमब्रह्मके साथ साथ अपना भी वध करता है। भावार्थ-स्पर्शन रसन और घ्राण इन तीनों इंद्रियों के विषय भोगकर भी फिर फिरसे भोगने में आते हैं। अत एव इनको बमन अथवा उगलनके समान समझना चाहिये । इसी लिये हे अन्तरात्मन् ! तुझको परमात्माका पुत्र होकर कुलीन होकर उसका सेवन करना उचित नहीं है। ऐसा करनेमे तेरा, तेरे पिता-परमात्मा दोन का ही घात होता है। यहाँपर बहिरात्मपरिणतिको अन्तरात्माका घात और शुद्ध म्वरूपसे च्युत कराकर आत्माको रागद्वेषयुक्त बनाना परमात्माका घात समझना चाहिये। इन्द्रियोंके द्वारा अनादि कालसे लगी हुई अविद्याकी वासनाके वशसे अनेक वार छिन्न हो गई हैं दुरा शाएं जिसकी ऐसे चित्तकी विषयासक्तिको हटाते हुए उस योग्यताकी विधिका उपदेश देते हैं जिससे कि परम पदकी प्राप्ति हो सकती है : तत्तद्गोचरभुक्तये निजमुखप्रेक्षीण्यमूनान्द्रिया,ण्यासेदु क्रियसेऽभिमानधन भोश्वेतः कयाऽविद्यया । पूर्या विश्वचरी कृतिन् किमिमकैरबैस्तवाशा ततो, विधैश्वयचणे सजत्सवितरि स्वे यौवराज्यं भज ॥ ४२ ॥ हे निबिड अभिमानके पुंज मन ! क्या तुझको यह बात मालुम है कि अपने अपने उन प्रतिनियत इष्टानिष्ट विषयोंका अनुभव करनेमें स्वाधीन वृत्तिको धारण करनेवाली इन इन्द्रियोंका उपस्थाता तुझको किस अविद्याने बगदिया है ? और हे कुशल हे गुणदोषोंके विचार तथा स्मरणादि करने में प्रधान ! सम्बद्ध एवं अध्याय ५९५ I
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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