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________________ अनगार १०८ अध्याय بع यो धीरैरभृतार्थो यस्तद्विहृतीवरैः ॥ १०१ ॥ जिस प्रकार मनुष्य चलने में लकडीका तबतक सहारा लेते हैं जबतक कि विना सहारे के ही चलने की शक्ति प्राप्त नहीं होती। किंतु शक्ति प्राप्त होजानेपर उसका सहारा लेना छोड देते हैं । इसी प्रकार धीर - कातरतारहित मुमुक्षुओं को भी व्यवहार नयका तबतक अबलम्बन लेना चाहिये जबतक कि उनको किरणोंकी तरहसे स्वच्छन्द निरालम्बनतया निश्चय नयमें संचार करनेकी शक्ति प्राप्त नहीं होती। किंतु उसके प्राप्त होजानेपर उसका अवलम्बन लेना छोड देना चाहिये । व्यवहार और निश्चय नयका लक्षण क्या है सो बताते हैं: - earer वस्तुनो भिन्ना येन निश्वयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोसौ निश्चयस्तदभेददृक् ॥ १०२ ॥ निश्चय नयको सिद्ध करनेकेलिये जीवादिक पदार्थोंसे कर्त्ता कर्म करण आदि कारकोंको जो भिन्न रूपसे बतानेवाला है उसको व्यवहार नय कहते हैं । और जो उनमें परस्पर अभेदका प्रदर्शक है उसको निश्चय नय कहते हैं । निश्चय नय दो प्रकारका है एक शुद्ध दूसरा अशुद्ध । इन दोनों का उल्लेख किस प्रकारसे होता है सो बताते हैं ।— सर्वेपि शुद्धबुद्ध कस्वभावाश्चेतना इति । शुद्धोऽशुद्ध रागाद्या एवात्मेत्यस्ति निश्वयः ॥ १०३ ॥ जितने भी जीव हैं, संसारी हों और चाहे मुक्त; सभी शुद्ध रागादि विभावोंसे रहित और SEEKERA १०८
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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