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________________ बनगार मैं संसारसम्बधी दःखोंके कारण मन वचन तथा काय और कषाय के द्वारा संचित हुए पापको निन्दा आलोचना और गहों के द्वाग इस तरह नष्ट कर देता हूं, जैसे कि मन्त्र के माहात्म्यसे वैद्य समस्त विषको निःशेष कर दिया करता है। यह निन्दादिरूप प्रतिक्रमणका लक्षण ही है । जैसा कि और भी कहा है कि: प्रमादप्राप्तदोषेभ्यः प्रत्यावृत्त्य गुणावृतिः । स्यात्प्रतिक्रमणा यद्वा कृतदोषविशोधना ॥ प्रमादके निमित्तसे जो दोष या अपराध उत्पन्न हुआ करते हैं उनसे आत्माको बचाये रखना, अर्थात वे दोष आत्मामें उत्पन्न न होने देना और गुणोंकी तरफ उसकी प्रवृति रखना इसको प्रतिक्रमण कहते हैं। अथवा प्रमादादिके वश जो दोष लगाये हों उनके दा करनेको भी प्रतिक्रमण कहते हैं। प्रतिक्रमण करने के समय-काल अथवा उसके विषय सात हैं। दिन रात्रि पक्ष चतुर्मास वर्ष ईर्या और उत्तमार्थ । दिन रात्रि पक्ष और वर्षे शब्दका अथे स्पष्ट है। चतुर्माससे मतलव श्रावण भाद्रपद आश्विन और कार्तिक इन चार महीनाओंका ही नहीं किंतु इसके आगे मगसिर पौष माघ और फलानको तथा चैत्र वैशाख ज्येष्ठ और अषाढ, इन चार चार महीनोंको भी चातुर्मास कहते हैं। इसतरह सिक सम्बन्धमे एक वर्षमें तीन चातुर्मास हुआ करते हैं। योसे मतलब ईपिथ गमनका है। जो शरीरक परित्याग कराने में समर्थ है-अर्थात् जो समाविमरणके समय किया जाता है ऐसे समस्त दोषोंकी आलोचना पूर्वक किये गये चार प्रकारके आहारके त्यागका नाम उत्तमा है । इस प्रकार समय या विषयकी अपेक्षासे प्रति ऋमणके सात भेद-आहिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुमोसिक, वापिक, ऐयापथिक, और उत्तमाथिक। जैसा कि कहा भी है कि: ऐर्यापथिकराध्युत्थं प्रतिक्रमणमाह्निकम् । पाक्षिकं च चतुर्मासवर्षोत्थं चोत्तमाथिकम् ॥ प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक हुआ करता है । अत एव इस कथनसे प्रतिक्रमणकी तरः आलोचनाके भी सात भेद समझ लेना चाहिये । यथा: बध्याय ७७५
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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