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अनगार
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प्रदेशोंमें इस तरहसे मिल जाते हैं कि वे मिलकर एक ही पर्यायरूप होजाते हैं। अत एव स्वतः स्वभावसे जीवके अमूर्त रहते हुए भी व्यवहारसे उसमें मूर्तता मानी जाती है। और इसीलिये वह कर्मबन्धको प्राप्त हो जाता है । क्योंकि मृर्तके साथ बंध होनेमें कोई बाधा नहीं आ सकती। इस तरह आगमके अनुसार आत्माकी मूर्तता सिद्ध है। किंतु इस विषयमें युक्ति भी दिखाते हैं:
विद्युदाद्यैः प्रतिभयहेतुभिः प्रतिहन्यते ।
यच्चाभिभूयते मद्यप्रायैर्मूर्तस्तदङ्गभाक् ॥ २९ ॥ अतय॑तया उपस्थित होनेवाले विजलीकी गर्जना, मेघका शब्द या वज्रपात प्रभृति विविध प्रकारके त्रासके कारणोंसे यह जीव प्रतिहत-स्तब्ध हो जाता है-इसकी गति रुक जाती है। इसी तरह मदिरा भङ्ग कोदों विष धतूरा अफीम आदि पदार्थोसे इसकी सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। इससे सिद्ध होता है कि अङ्ग -शरीरको अपने अङ्गकी तरहसे धारण करनेवाला यह जीव मूर्त है। क्योंकि यदि यह शरीरी-संसारी जीव, क्योंकि जितने संसारी जीव हैं वे सब मूर्त हैं ऐसा पहले कहा गया है, मूर्त न हो तो उसकी उक्त अवस्थाएं नहीं हो सकती हैं ।
इस प्रकार आगम और युक्तिसे सिद्ध होनेपर भी जिसके कर्मकी मूर्तता भले प्रकार अनुभवमें आजाय ऐसा प्रमाण बताते हैं :
यदाखुविषवन्मूर्तसंबन्धेनानुभूयते ।
यथास्वं कर्मणः पुंसा फलं तत्कर्म मूर्तिमत् ॥ ३० ॥ कर्म दो प्रकारके हैं । एक तो वे जिनका कि फल सुखके कारणभूत इन्द्रियोंके विषय हैं। दूसरे वे
अध्याय