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अनगार
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अध्याय
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जपहोम आदि के द्वारा आराधन करनेपर जो मिद्ध दर्शाभूत हुई हो उसको विद्या कहते हैं । उसके द्वारा भुक्तिदेवता - भोजन प्रदान करनेवाले व्यन्तरादिदेवोंक आव्हान करके उनसे प्राप्त हुई आहारोपधादिक सामग्रीके ग्रहण करनेवाले साधुके विद्यानामका दोष होता है। इसी प्रकार जिसका पहले गुरुमुखसे अध्ययन किया हो किन्तु पीछे वह सिद्ध होगया हो अपनी शक्तिके अनुसार कार्यका साधक बनगया हो उसको मन्त्र कहते हैं। इसके द्वारा उक्त भुक्तिदेवताका आमन्त्रण करके उसके द्वारा सम्पन्न हुई आहार्य सामग्रीका ग्रहण करनेवालेके म नामका दोष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि,
विद्यामन्त्रैः समाहूय यद्दानपतिदेवताः । साधितः स भवेदोषो विद्यामन्त्रसमाश्रयः ॥
चूर्ण और मूलकर्म दोषों को बताते हैं :--
दोषो भोजनजननं भूषाञ्जनचूर्णयोजनाच्चूर्णः ।
स्यान्मूलकर्म चावशवशीकृतिवियुक्तयोजनाभ्यां तत् ॥ २७ ॥
वस्तुओंकी रजविशेषको चूर्ण कहते हैं । प्रकृतमें यह दो प्रकारका कहा जा सकता है, एक भूषाचूर्ण दूसरा अंजनचूर्ण। जिससे शरीर शोभायमान या अलंकृत हो ऐसी द्रव्यरजको भूषाचूर्ण और जिससे नेत्रों में निर्मलता आदि उत्पन्न हो उसको अंजनचूर्ण कहते हैं। इस तरहके चूर्णोंका दाताकेलिये सम्पादन करके उसके यहां भोजन ग्रहण करनेवाले साधुके चूर्ण नामका दोष लगता है । क्योंकि यह क्रिया जीविकाके द्वारा जीवन करनेमें प्रवृत्त करती है aara इसको दोष माना है । जो अपने अधीन नहीं है उसको वशमें करनेका उपाय बताकर या वैसा होनेकी योजना करके, और परस्पर में वियुक्त हुए विरही स्त्री पुरुषोंका मेल कराकर अथवा उसका उपाय बताकर भोजन ग्रहण करनेवाले साधुके मूल कर्म नामका उत्पाद दोष लगता है। क्योंकि ऐसा करनेमें लज्जादिका आभोग-स्वीकार किया जाता 1
धर्म०
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