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________________ अनगार यो यद्विजानाति स तन्न शिष्यो यो वा न यद्वष्टि स तन्न लभ्यः। को दीपयेडामनिधि हि दीपैः कः पूरयेद्वाम्बुनिधि पयोभिः ॥ जो जिस विषयको जानता है और अच्छी तरहसे जानता है वह उस विषयमें प्रातिपाद्य नहीं हो सकता -उसको उस विषयकी शिक्षा नहीं दी जा सकती। इसी तरह जो जिस चीजको चाहता ही नहीं उसको वह चीज देनी नहीं चाहिये । भला, ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो सूर्यको दीपकसे प्रकाशित करना चाहे । अथवा क्या कोई ऐसा भी आदमी है जो समुद्रको जलसे भरना चाहे । भावार्थ-व्युत्पन्न पुरुष स्वयं उस विषयका जानकार है और उस विषयको जानना चाहता भी नहीं । अत एव उसको उपदेश नहीं देना चाहिये । उसको उपदेश देना व्यर्थ है। विपर्यस्तबुद्धिको उपदेश देनमें दोष दिखाते हैं। यत्र मुष्णाति वा शुद्धिच्छायां पुष्णाति वा तमः। गुरूक्तिज्योतिरुन्मीलत् कस्तत्रोन्मीलयेद्गिरम् ॥ २१ ॥ ऐसा कौन विचारशील होगा जो ऐसे पुरुषको उपदेश देनेका प्रयत्न करे कि जिसके हृदयमें नाम मात्रको रहनेवाली शुद्धि गुरूपदेशकी ज्योतिके प्रकाशित होते ही नष्ट होजाती है और अंधकार पुष्ट हो जाता है। भावार्थ-जहांपर उपदेशका फल उल्टा हो वहां उपदेश देना व्यर्थ है। वचनका प्रयोग वहां करना चाहिये जहां उसका ठीक फल निकलता हो । अध्याय १- वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं यत्रोक्तं लभते.फलम् ।.. .
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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