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________________ अनगार ३०५ गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्य सम्यक्त्व संज्ञा आहारक । ये चौदह मार्गणाएं हैं। इन गुणस्थानों और मार्गणाओं के द्वारा तथा मार्गणाओंमें सदादि अनुयोगोंके द्वारा गुणस्थानोंको लगाकर विस्तारके साथ और आगमके अनुसार जीव के भेदाभेदोंका और उनके स्वरूपका भले प्रकार निश्चय करके यतियोंको उन जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये । सारांश -जीवोंके भेदों और उनके स्वरूपको भले प्रकार जाने विना अहिंसा महाव्रत नहीं पल सकता। अत एव यहांपर जीवतत्वके विषयमें संक्षपसे वर्णन किया है । आगममें उनका विशेष स्वरूप कहा है। वहांसे उसको देखकर विशेष निश्चय करना चाहिये । और जीवोंकी रक्षा कर यतियोंको पूर्ण अहिंसा व्रत पालना चाहिये । प्रमत्तयोगसे होनेवाले प्राणव्यपरोपणको हिंसा कहा है। किंतु वस्तुतः प्रमत्तयोग ही हिंसा है; ऐसा उपदेश देते हैं: रागाद्यसङ्गतः प्राणव्यपरोपेऽप्यहिंसकः ।। स्यात्तदव्यपरोपेऽपि हिंस्रो रागादिसंश्रितः॥ २३ ॥ यदि जीव राग द्वेष या मोहरूप परिणामोंसे आविष्ट नहीं है तो प्राणोंका व्यपरोपण होजानेपर भी वह आहंसक है । और यदि रागद्वेषादि कषायोंसे युक्त है तो प्राणोंका वियोग न होनेपर भी हिंसक है। याय १-गुणस्थान व मार्गणादिकका विशेष स्वरूप जीवकाण्डादिकोंमें देखना चाहिये । यहां संक्षेप कथनके कारण नाममात्र ही उल्लेख किया है। २-दया दया सब ही कहें। दया न जाने कोय । जीवजाति जाने विना । दया कहांसे होय ।। अ. घ. ३९
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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