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________________ बनगार ९०५ अभ्यास ९ BAALAANELEAS जिस श्रुतज्ञानरूप संपचिकी कोई तुलना नहीं कर सकता उसको अथवा नौ पूर्व दश पूर्व या चौदह पूर्वतक श्रुतज्ञानको, या कल्पव्यवहारके धारण करनेको आधाश्वस्थ कहते हैं। यह गुण जिनमें पाया जाय ऐसे मतिज्ञानके समुद्र आचार्य को आभारी कहते हैं। जैसा कि कहा भी है किः - नवदश चतुर्वशाणां पूर्वाणां वेदिता मतिसमुद्रः । कल्पव्यवहारधरः स भवत्याचारवान् नाम ॥ व्यवहार नाम प्रायश्चित्तका है. वह आगम आदि के भेदसे पांच प्रकारका है. इसकी कुशलताको डी व्यवहारपटुता कहते हैं । जो आचार्य रस विषय के ज्ञानको रखनेवाले हैं, जिन्होने अनेक वार प्रायश्चित्तको देते हुए देखा है, और जिन्होने स्वयं भी अनेकवार उसका प्रयोग किया है, स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण किया है, दूसरोंको दिया है, अथवा दिलवाया है उनको व्यवहारी अथवा व्यवहारपटु कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि पचविधं व्यवहारं यो मनुते वस्तुतः सविस्तारम् । कृतकारितोपखन्धप्रायश्चित्तस्तृतीयस्तु ॥ व्यवहारके पांच भेद जो बताये हैं उनका खुलासा करते हैं: भागमा श्रुतं चाज्ञा धारणा जीत एव च । व्यवहारा भवन्त्येते निर्णयस्तत्र सूत्रतः ।! व्यवहार - प्रायश्चित पांच प्रकारका है, -आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। इन विषयोंका निर्णय सूत्र के अनुसार हुआ करता है । ग्यारह अंगशास्त्रों में जो प्रायश्चित बताया गया है अथवा उनके आधार से जो प्रायाचिस दिया जाता है उसको आगम कहते हैं। इसी प्रकार चौदह पूर्वेमें बताये हुए अथवा तदनुसार दिये १ - सुत्रका लक्षण पहले बता चुके हैं। ११४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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