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________________ अनगार १७८ अध्याय w sesोषधियं गुणेष्वपि गुणश्रद्धां च दोषेष्वपि । या सूते सुधियोपि विभ्रमयते संवृण्वती यात्यणू, - न्यप्यभ्यू पदानि सा विजयते माया जगद्व्यापिनी ॥ १७ ॥ समस्त संसारको व्याप्त करलेनेवाली मायाने सबपर विजय - सर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त कर रक्खा है । क्योंकि यह प्रयोजनके अनुसार जहां जब जैसा भाव प्रकट करना चाहिये वहां उस समय वैसा ही भाव प्रकट किया करती है। कभी तो अनुभूत भी क्रोध मान या लोभरूप कषायभावोंको उद्भूतकी तरह प्रकट किया करती है, और कभी - प्रयोजन के आश्रय से उदभूत मी इन कषायको अनुद्भूतकी तरह दिखाया करती है । जैसा कि कहा भी है कि भेयं माया महागर्तान्मिथ्याघनतमोमयात् । मिलना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः । मिथ्यादर्शन या विपर्यासरूप निविड अन्धकारसे व्याप्त उस मायाचाररूपी महान गर्तसे अवश्य ही डरना चाहिये जिसमें कि पडे हुए क्रोधादि कषायरूपी विषयभुजङ्ग देखने में नहीं आ सकते । यह माया दृष्टिको शान्त बनाकर गुणोंमें दोषबुद्धि और दोषोंमें गुणोंकी श्रद्धा उत्पन्न कर दिया करती है । अधिक क्या कहें, ऐसे अत्यंत सूक्ष्म तकणाके स्थानोंको जो कि सहसा दृष्टिमें भी न आ सकें, ढककर साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या, कुशलबुद्धियों को भी भ्रम में डाल देती है। जैसा कि कहा भी है कि 1 बेहिः सर्वाकारप्रवणरमणीयं व्यवहरन्, १- यह लोक श्रीगुणभद्र स्वामीने कहा है । २- यह लोक मुद्राराक्षस नाटकमेंका है। Faaaaaaa 2022 20
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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