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________________ बनगार न हो। मेरा किसी भी स्वपक्ष या परपक्षवाले के साथ किसी तरहका वैर-विरोध भी नहीं है। मैं सम्पूर्ण सावध-हिंसादिक पापोंसे युक्त मन वचन कायके व्यापारोंसे निवृत्त हूं।" इस तरह के भावोंको धारण करके मुमुक्षुओंको भाव सामायिक पर आरूढ होना चाहिये । भावार्थ-मावसामायिकका स्वरूप पहले बताच के हैं कि सम्पूर्ण जीवोंमें मैत्रीभाव धारण करना और अशुम परिणामोंको छोडना भावसामायिक है। तो भी उसकी स्मृतिको दृढ बनाने केलिये यहां फिरसे उसका उल्लेख कर दिया है। विवेकी पुरुष भावसामायिकमें प्रवृत्त हो इसके लिये उसका असाधारण माहात्म्य दिखाते हुए शिक्षा देते हैं: एकत्वेन चरन्निजात्मनि मनोवाक्कायकर्मच्युतेः कैश्चिद्विक्रियते न जातु यतिवद्यद्भागपि श्रावकः । येनार्हच्छ्रतालिङ्गवानुपरिमप्रैवेयकं नीयतेऽ भव्योप्यद्भुतवैभवेत्र न सजेत् सामायिक कः सुधीः ॥ ३६ ॥ इस सामायिकका माहात्म्य अद्भुत है । क्योंकि इसका सेवन करनेवाला यदि संयमी हो तब तो कहना ही क्या है। यदि श्रावक भी हो जो कि संयमका एकदशरूपसे ही पालन किया करता है तो वह भी इसका सेवन करनेपर संयमीके ही समान बाह्य या अभ्यन्तर कैसे भी विकार उत्पन्न करनेवाले कारणोंके उपस्थित होनेपर कभी भी विकारको प्राप्त नहीं होता। वे कारण इसके हृदयपर रंचमात्र भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । क्योंकि सामायिक करनेवाला श्रावक मन वचन कायके व्यापारसे रहित होकर अपने नित्य चित्स्वरूपमें ही एक ज्ञायक भावके द्वारा प्रवृत्ति किया करता है। वह इच्छापूर्वक मन वचन कायके व्यापारमें प्रवृत्त नहीं होता। और आत्माका अनुभव करनेमें भी कर्तृत्व भोक्तृत्व भावको भी नहीं रखता । यद्यपि अन्तरङ्गमें उसके संयमका घात करनेवाले प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय रहा करता है तो भी उसके तज्जनित अविरतिरूप परिणाम बहुत ही अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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